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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
आचार्य अमृतचन्द्र ने 'समयसार' की आत्मख्याति नामक टीका में लिखा है कि 'जो वस्तु तत्स्वरूप है, वही अतत्स्वरूप भी है। जो वस्तु एक है, वही अनेक भी है, जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है तथा जो वस्तु नित्य है, वही अनित्य भी है! इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त का कार्य है। एक ही वस्तु में एक साथ परस्पर विरोधी दो धर्म कैसे रह सकते हैं?
जिस प्रकार एक ही पुरुष एक ही समय में एक ही साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से छोटा, बड़ा, बच्चा, बूढ़ा, जवान, पुत्र, पिता, गुरु, शिष्य आदि परस्पर विरुद्ध रूपों को धारण करता है, उसी तरह सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से वस्तु में एक ही साथ पाए जाते हैं। जिस समय देवदत्त अपने लड़के का पिता है, उसी समय वह अपने पिता का पुत्र भी है, अपने शिष्य का यदि गुरु है तो अपने गुरु का शिष्य भी तो है। तात्पर्य यह है कि एक ही साथ भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्म रहते हैं। इसलिए पदार्थों में सर्वथा अत्यन्तविरोध तो नहीं कहा जा सकता। कथंचित् थोड़ा बहुत विरोध तो सभी पदार्थों में पाया जाता है। जो एक वस्तु में धर्म है, वह दूसरी में नहीं है। वस्तुओं में कथंचित विरोध हुए बिना भेद ही नहीं हो सकता। वस्तुओं में कथंचित् विरोध तो प्रयत्न करने पर भी नहीं हटाया जा सकता, इसलिए वह अपरिहार्य-अवश्यंभावी होने से दूषणरूप नहीं है।
प्रश्न - अनेकान्तवाद में प्रमाण भी अप्रमाण, सर्वज्ञ भी असर्वज्ञ तथा सिद्ध भी संसारी हो जायेगा।
उत्तर - यह कथन निरर्थक है; क्योंकि स्याद्वादी प्रमाण को भी अपने विषय में ही प्रमाणरूप मानते हैं, पर विषय में तो वह अप्रमाणरूप ही है। घटज्ञान घटविषय में प्रमाण है तथा पटादिविषयों में अप्रमाण। अत: एक ही ज्ञान विषयभेद से प्रमाण भी है तथा अप्रमाण भी। सर्वज्ञ भी अपने केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वज्ञ है तथा संसारी जीवों के अल्पज्ञान की अपेक्षा असर्वज्ञ। यदि संसारियों के ज्ञान की अपेक्षा भी वह सर्वज्ञ हो जाय तो इसका अर्थ यह हुआ कि संसार के समस्त प्राणी सर्वज्ञ हैं। सर्वज्ञ अपने ज्ञान के द्वारा ही सबको जानता है। यदि वह हम लोगों के ज्ञान के द्वारा भी पदार्थों का ज्ञान कर सके तो फिर उसकी आत्मा और हमारी आत्मा में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। जिस तरह हम अपने ज्ञान से जानते हैं, उसी तरह सर्वज्ञ भी हमारे ही ज्ञान से जानता है। अतः सर्वज्ञ और हमारी आत्मा में अभेद होने से या तो सर्वज्ञ की तरह हम लोग सर्वज्ञाता हो जायेंगे या हमारी तरह सर्वज्ञ भी अल्पज्ञ ही हो जायेगा। सिद्ध-मुक्त जीव भी अपने साथ लगे हुए कर्मपरमाणुओं से छूटकर सिद्ध हुए हैं, अत: वे स्वसंयोगी
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