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मन की शान्ति-अनेकान्त दृष्टि से
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दोनों कानों में अपनी अंगुलियां घुसा दी। वह अवाक् रह गया। ग्रामीण के उस आकस्मिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका। ग्रामीण बोला-क्षमा करें, मै जानता हूँ कि आपको कष्ट हो रहा है, पर मैं नहीं चाहता कि मेरी पत्नी के. गुप्त समाचार आपके कानों तक पहुंचे। इसलिए मैंने ऐसा किया। आप आगे भी पढ़ें। वह ग्रामीण ही तो था। वह यह नहीं समझ सका कि पढ़ी हुई बात कानों तक पहुँचें या नहीं, कोई अन्तर नहीं पड़ता। उसमें सूक्ष्म बुद्धि नहीं थी। वह मात्र इतना ही जानता था कि मेरी गुप्त बात कोई सुन न ले।
यह विरोधाभास एक ग्रामीण में ही नहीं, बहत पढ़-लिखें लोगों में भी है। मुझे तो यह लगता है कि शायद पढ़े-लिखे लोगों की समस्याएं और अधिक जटिल हैं। वे इसलिए जटिल बन गयीं कि अनपढ़ आदमी में अभी तक ज्यादा महत्त्वाकांक्षाएं जागी नहीं हैं। वह कल्पना भी नहीं करता कि इतना आगे पढ़ा जा सकता है। किन्तु पढ़े-लिखे लोगों के सामने द्धि की प्रखरता ने इतनी इच्छाएं जगा दी, इतने बड़े-बड़े मूल्य सामने रख दिए कि पूर्ति ही नहीं हो पा रही है और फिर मन की अशांति के लिए बहुत अच्छी सामग्री है। परिणाम स्वरुप मानसिक तनाव एवं मानसिक विक्षिप्तता की स्थिति पैदा होती है। इच्छाएं बढ़ जाएं और पूर्ति न हो सके, इससे विकट कोई समस्या ही नहीं हो सकती। जब तब आदमी की महत्त्वाकांक्षाएं न जागें, शायद वह संतोष और शान्ति का जीवन जी सकता है। महत्त्वाकांक्षा जाग जाएं और उसकी संपूर्ति न हो उस स्थिति में क्या बीतता है यह तो वही व्यक्ति जानता है या भगवान जानता है। इतनी बैचैनी, इतनी कठिनाई, इतनी परेशानी होती है कि उस परेशानी को कोई बता नहीं सकता । जो पदार्थ तुम्हारे नहीं हैं बल्कि पराये हैं, दूसरों से उधार लिये हुए हैं, पुण्य से मिले हैं फिर भी मनुष्य जब उसके मोह में बावरा बन “ये मेरे हैं, यह पत्नी-परिवार मेरा है, धन-धान्यादि संपत्ति मेरी है, मैं ही इसका एकमात्र मलिक हैं, कहते हुए सदैव लालायित रहता है तब उसमें एक प्रकार की विह्वलता आ जाती है और यही स्थिति उसमें विपर्यास की भावना पैदा करती है।
मैं धनवान बनूं ऋद्धि-सिद्धियां मेरे पांव छुएं! यह है क्षण भंगुर संकल्पदीप! और नानाविध विचार पैदा हुए: अमुक बाजार में जाऊं, आलीशान दुकान बनाऊं व्यापार में बड़े व्यक्ति को साझेदार
बनाऊं
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