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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
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है। सत्य वास्तविकता की गहराइयों में जाने पर उपलब्ध होता है। जैन दर्शन इस उपलब्धि का अन्यतम ऋजु मार्ग है। वह एक दर्शन नहीं है, किन्तु दर्शनों का समुच्चय है। अनन्त दृष्टियों के सहअस्तित्व को मान्यता देनेवाला एक दर्शन कैसे हो सकता है, जैन दर्शन के अध्ययन का अर्थ है: सब दर्शनों का अध्ययन और सब दर्शनों के सापेक्ष अध्ययन का अर्थ है जैन दर्शन का अध्ययन।
पूर्व और पाश्चात्य दर्शनों में स्याद्वाद का मूल्य अपूर्व है। स्याद्वाद सुख, शान्ति और सामंजस्य का प्रतीक है। विचार के क्षेत्र में अनेकान्त, वाणी के क्षेत्र में स्याद्वाद और आचरण के क्षेत्र में अहिंसा - ये सब भिन्न-भिन्न दृष्टियों से लेकर एक रूप ही हैं। जो दोष नित्यवाद में है, वे समस्त दोष अनित्यवाद में उसी प्रकार से हैं। अर्थ क्रिया न नित्यवाद में बनती है, न अनित्यवाद में । अत: दोनों वाद परस्पर विध्वंसक हैं । इसी कारण स्याद्वाद का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। हिंसा, अहिंसा, सत्य, असत्य आदि का निर्णय इसके द्वारा सरलता से किया जा सकता है। मानव, आचरण को शुद्ध कर, स्याद्वादरूप वाणी द्वारा सत्य की स्थापना करके, अनेकान्तरूप, वस्तु-तत्त्व को प्राप्त कर आत्म साक्षात्कार कर सकता है, अनन्त चतुष्टय और सिद्धान्त की प्राप्ति संभव हो सकती है।
पं० दलसुखभाई मालवणिया लिखते हैं कि - "निस्सन्देह सच्चा स्याद्वादी सहिष्ण होता है। वह राग-द्वेष रूप आत्मा के विकारों पर विजय प्राप्त करने का सतत् प्रयास करता है। दूसरे के सिद्धान्तों को आदर-दृष्टि से देखता है और माध्यस्थभाव से सम्पूर्ण विरोधों का समन्वय करता है।
दार्शनिक जगत् के लिए जैन दर्शन की यह देन अनुपम और अद्वितीय है। इस सिद्धान्त के द्वारा विविधता में एकता और एकता में विविधता का दर्शन करा कर जैन दर्शन ने विश्व को नवीन दृष्टि प्रदान की है।
अनेकान्तवाद का आलोक हमें निराशा के अन्धकार से बचाता है। वह हमें ऐसी विचारधारा की ओर ले जाता है, जहां सभी प्रकार के विरोधों का उपशमन हो जाता है। यह समस्त दार्शनिक समस्याओं, उलझनों, और भ्रमों का समाधान प्रस्तुत करता है। सन्दर्भ -
पंचाशक प्रकरणम्, हरिभद्र, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी- १९९७,
भूमिका पृ०३१, २. रत्नाकरावतारिका पृ० ८९ ।
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