________________
322
Multi-dimensional Application of Anekāntavada
विरोध है। अनेकान्तवाद : प्रमुख दार्शनिकों की आलोचनाओं का निराकरण
जैन दर्शन ने, दर्शन शब्द का काल्पनिक व्याख्याओं से ऊपर उठकर तत्त्वचिन्तन के क्षेत्र में बद्धमूल एकान्तिक धारणाओं का उन्मूलन करने एवं वस्तु के यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद की भाषा दी है। इस देन में उसका यही उद्देश्य रहा है कि विश्व अपने वास्तवकि स्वरूप को समझे कि उसका प्रत्येक चेतन और जड़ तत्त्व अनन्तधर्मों का भण्डार है। प्रत्येक वस्तु अनन्त संतान-स्थिति की दृष्टि से नित्य है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्व के रंगमंच से एक कण का भी समूल विनाश हो जाये या उसकी संतति सर्वथा उच्छिन्न हो जाये। साथ ही उसकी पर्यायें प्रतिक्षण बदल रही हैं। उसके गण-धर्मों में सदश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है, अत: यह अनित्य भी है । इसी तरह अनन्त गुण, शक्ति, पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तु की निजी संपत्ति है, लेकिन हमारा स्वल्प ज्ञान इनमें से एक-एक अंश को विषय करके क्षुद्र मतवादों की सृष्टि कर रहा है।
___ स्याद्वाद के उक्त दृष्टिकोण को नहीं समझकर और वस्तु को यथार्थ दृष्टिकोण से देखने का प्रयास न कर अनेक भारतीय दार्शनिकों ने अपने एंकागिक चिन्तन के आधार पर स्याद्वाद सिद्धान्त की आलोचना एवं उस पर दोषारोपण करने का प्रयास किया है।
सर्वप्रथम हम आचार्य धर्मकीर्ति को लेते हैं, जो बौद्ध आचार्य हैं और उपलब्ध साहित्य के अनुसार अनेकान्त-विरोधी तर्क के सर्वप्रथम प्रस्तोता हैं । __आचार्य धर्मकीर्ति के दो, तर्क सामने आते हैं - १. एक तो वस्तु को स्व-पररूप मानने से बड़ी कठिनाई पैदा होना । २. दूसरे, सबको सब स्वरूप मामने से बुद्धि और शब्द भिन्न नहीं हो सकेंगे।
आचार्य धर्मकीर्ति ने जो प्रथम विरोधी तर्क उपस्थित किया है, वह वस्तु का स्व-पररूप मानने की मान्यता को लेकर है। लेकिन साधारण तौर पर देखा जाय तो यह अनेकान्तवाद की मान्यता नहीं है। अनेकान्तवाद वस्तु में स्वरूप की दृष्टि से सत्व और पररूप की दृष्टि से असत्व मानता है। घट, घटत्व की अपेक्षा सत्,पटत्व की अपेक्षा असत् है। इसका मतलब यह हुआ कि घट, पट नहीं है। अनेकान्तदर्शन तो वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों को मानता है। उसके मत में स्वत्त्व, असत्त्व को छोड़कर नहीं रहता है। दोनों धर्म वस्तु में अवच्छेदक भेद से रहते हैं।' १२
इस विवेचन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो अनेकान्त दर्शन वस्तु को पररूप नहीं मानता है। अत: आचार्य धर्मकीर्ति का यह दूषण उद्भावित करना अनुचित एवं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org