________________
समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
315
प्रकार हैं - १. राग और द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होना अर्थात् तेजस्वी माध्यस्थ
भाव रखना। २. जब तक माध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो तब तक उस लक्ष्य की ओर
ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना । कैसे भी विरोधी भासमान पक्ष से न घबराना और अपने पक्ष की तरह उस पक्ष पर भी आदरपूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्ष की
तरह तीव्र समालोचक दृष्टि रखना। ४. अपने तथा दूसरों के अनुभवों में से जो-जो अंश ठीक जंचे-चाहे वे विरोधी
ही प्रतीत क्यों न हों- उन सबको विवेक-प्रज्ञा से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और अनुभव बढ़ने पर पूर्व के समन्वय में जहाँ गलती मालूम हो वहां मिथ्याभिमान छोड़ कर सुधार करना और इसी क्रम से आगे
बढ़ना। अनेकान्तवाद : समन्वय, शान्ति एवं समग्रभाव का सूचक
___अनेकान्तवाद भारतीय दर्शनों की एक संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है । इसके बीज आज से सहस्रों वर्ष पूर्व संभावित जैन आगमों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्यादस्ति, स्यानास्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्तनय आदि विविध रूपों में बिखरे पड़े हैं । सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने सप्तभंगी आदि के रूप में तार्किक पद्धति से अनेकान्तवाद को एक व्यस्थित रूप दिया। तदन्तर अनेक आचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्मय रचा जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता
संसार के जितने भी विद्वान् इस तर्क पद्धति के परिचय में आते हैं, वे सभी इस पर मुग्ध हो जाते हैं। डॉ० हर्मन जेकोबी, डॉ० स्टीनकोनो, डॉ० टेसीटोरी, डॉ० पारोल्ड, जार्ज बर्नाड शा, जैसे चोटी के पाश्चात्य विद्वानों ने इस सिद्धान्त की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है।
भगवान् महावीर का युग-दर्शन-प्रणयन का युग था। उस समय आत्मा, परलोक, स्वर्ग, मोक्ष, है या नहीं,-आत्मा नित्य है, अनित्य है, एक है, अनेक है, आदि प्रश्नों की गूंज थी। भगवान महावीर ने अपनी अनेकान्तमयी और अहिंसामयी दृष्टि से अपने युग के विभिन्न वादों का समन्वय करने का सफल प्रयत्न किया था। भगवान महावीर ने कहा स्वस्वरूप से आत्मा है, परस्वरूप से आत्मा नहीं है। द्रव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org