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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
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एकांगी प्रतिपादन के कारण वे विरोधी से प्रतीत होने लगते हैं। उनमें प्रतीत होने वाले विरोध का शमन अनेकान्त दृष्टि से ही किया जा सकता है।
अत: महावीर की सत्य प्रकाशन की शैली का ही दूसरा नाम “अनेकान्तवाद" है। उसके मूल में दो तत्त्व हैं- पूर्णता और यथार्थता। जो पूर्ण है और पूर्ण होकर भी यथार्थ रूप से प्रतीत होता है, वही सत्य कहलाता है। अनेकान्त का उद्भव
__ अनेकान्त के उद्भव के दो आधार हैं, इतिहास और परम्परा। परम्परा की दृष्टि से इस युग में अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव हैं। सर्वप्रथम यह उपदेश ऋषभदेव ने दिया।६ अत: अनेकान्त का उद्भव इस युग के प्रारम्भकाल में
हुआ।
ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्त का उद्भव तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के द्वारा हुआ। उनके २५० वर्ष के बाद महावीर अनेकान्त के प्रवर्तक हुए। इस युग के अंतिम तीर्थंकर महावीर हैं। महावीर का भी प्रथम उपदेश त्रिपदी रूप में ही हुआ है
उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा धुवेइ वा ।। किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतंत्र दृष्टि से वस्तु को देखने की तथा उसके संबंध में अन्यान्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझने और उन्हें उचित मान्यता प्रदान करने की प्रवृत्ति ही अनेकान्त की जन्मस्थली है। विभिन्न दर्शनों से दृष्ट सत्यों में एकरूपता लाने, उनमें समन्वय एवं सामञ्जस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर निर्मल और तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने के प्रयत्न ही अनेकान्त के उद्भव के हेतु हैं।
अनेकान्स उद्भव कर्ताओं ने अच्छी तरह अनुभव किया था कि जीवन-तत्त्व अपने में पूर्ण होते हुए भी वह कई अंशों की अखण्ड समदृष्टि है जिसकी समुचित व्याख्या अनेकान्तवाद ही कर सकता है ।
___आइन्स्टीन का सापेक्षवाद, भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है । अनेकान्तवाद इन दोनों का व्यापक या विकसित रूप है । इस भूमिका पर ही आगे चलकर दार्शनिकों में सगुण और निर्गुण के वाद-विवाद एवं ज्ञान और भक्ति के झगड़े को सुलझाया है। आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर महावीर ने अपनी दृष्टि को व्यापकता प्रदान की। अनेकान्त की मर्यादा
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