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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
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सीमित मानते हैं। उनका विचार है कि स्याद्वाद का सिद्धांत केवल सापेक्ष सत्य (Relative truth) को प्राप्त करने का रास्ता दिखाता है, उसके निरपेक्ष सत्य (Absolute truth) का रूप हमें नहीं दिखाई देता। इस आपत्ति के उत्तर में जैन विद्वान् कहते हैं कि सापेक्ष सत्य के लिये जो संदेह प्रकट किया जाता है, उसका एक कारण यह है कि सापेक्ष सत्य को पूर्ण सत्य या निरपेक्ष सत्य से अलग रखकर सोचा जाता है। सचमुच में, सापेक्ष सत्य उस वास्तविक सत्य से अलग नहीं है। इसलिये उस दृष्टि से स्याद्वाद को केवल लोकव्यवहार तक ही सीमित रखना ठीक नहीं है।''४६
बौद्ध और वेदांती स्याद्वाद को विरोधपूर्ण सिद्धांत बताते हैं। शंकर तो स्याद्वाद को “पागलों का प्रलापमात्र'' मानते हैं, क्योंकि यहाँ किसी वस्तु को "है भी
और नहीं भी है' कहा गया है। किसी वस्तु को सत्-असत् दोनों कहना तो अनिश्चितता मात्र ही है, क्योंकि इनसे वस्तु के स्वरूप का निश्चय नहीं हो पाता तथा नि:संशय प्रवृत्ति नहीं होती। पुनः श्री शंकराचार्य ने चौथे भंग-'अव्यक्त' में दोष दिखाया है। उनके अनुसार किसी वस्तु के बारे में कुछ कहना भी तो उसे अव्यक्त बताना है तो वचन में विरोध स्पष्ट है। यदि पदार्थ अव्यक्त है तो उसके बारे में कुछ कथन नहीं किया जा सकता।''४७ कछ लोगों ने स्याद्वाद की व्याख्या में सहायक सात वाक्यों के लिये कहा है कि वास्तव में सात नयों में से सिर्फ चार नय मौलिक हैं, शेष तीन और चार नयों की पुनरावृत्तिरूप हैं। कुमारिल भट्ट कहते हैं कि इस प्रकार जोड़ने से तो सात ही क्यों सैकड़ों नय हो सकते हैं।
स्याद्वाद को अज्ञेयवाद (Agnosticism) और संशयवाद (Scepticism) कहकर भी इसका खंडन किया गया है जबकि यह ठीक नहीं है। अज्ञेयवाद वह सिद्धांत है जिसके अनुसार अन्तिम सत्य न तो जाना जा सकता है और न जानने योग्य है। जैसा कि महान् पाश्चात्य दार्शनिक कांट ने खुद ही स्वीकार किया है- कोई वस्तु अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं जानी जा सकती (A thing in itself is Unknown & Unknowable) जैन दर्शन के लिये यह बात पूर्णरूप से लागू नहीं होती। वहाँ तो “स्याद्वाद् '' सिद्धांत के द्वारा यही बताया जाता है कि किसी वस्तु का ज्ञान पूर्णरूप से सत्य नहीं होकर प्रसंगों की विभिन्नता के कारण आंशिक सत्यता से भरा रहता है। हम वस्तु के सभी धर्मों, को नहीं जानते परन्तु कुछ को तो जानते हैं। फिर जैन-दर्शन के अनुसार "केवल ज्ञान” के द्वारा तो सब कुछ जाना जा सकता है। इसलिए किसी वस्तु को नहीं जान सकना या उसे नहीं जानने योग्य के रूप में मानना जैनों को स्वीकार नहीं हो सकता।''४८
संशयवाद (Scepticism) के अनुसार वस्तुओं की असत्यता और संदिग्धता का बोध होता है। जैन दर्शन में किसी वस्तु के अस्तित्व पर कभी संदेह नहीं किया
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