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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
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"कथंचित्' रूप से ही सत्य या असत्य होता है। अत: हमें प्रत्येक कथन के पूर्व "स्यात्' शब्द लगाना चाहिये। किसी वस्तु के किसी विशेष गुण को व्यक्त करने को"नय” कहा जाता है। अर्थात् “नय' वस्तु का आंशिक ज्ञान है। हम विभिन्न “नयों" द्वारा ही वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते हैं। उसके पूर्ण रूप में कदापि नहीं। - सत् के संबंध में जैन-दार्शनिकों की अनेकांतवादी दृष्टि और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद में समानता दिखाई पड़ती है अर्थात् अनेकांतवादी या स्याद्वादी दृष्टिकोण के आधार पर ही उसके संबंध में कोई निर्णय या विचार किया जा सकता है। वह किसी विशेष देश और काल से सीमित रहता है, उसकी सत्यता सापेक्ष और संभाव्य होती है।'४३
सापेक्षवाद का सिद्धांत दो भागों में बाँटा जा सकता है(१) विज्ञानवादी सापेक्षवाद और वस्तुवादी सापेक्षवाद।
विज्ञानवादी सापेक्षवाद के सम्बन्ध में प्रोटागोरस, बर्कले, शिलर इत्यादि विद्वानों का नाम लिया जाता है। वस्तुवादी सापेक्षवाद के लिए (White Head, Boodin) आदि विद्वानों के नाम आते हैं।
किन्तु जैनों के स्याद्वाद का यदि किसी से मेल खाता है तो वह “वस्तुवादी सापेक्षवाद'' से ही। इसलिये बहुत से आलोचक जैन दर्शन को सापेक्षवादी मानने के साथ उसे वस्तुवादी (Realist) भी मानते हैं। जैन दर्शन में “वस्तुवादी सापेक्षवाद इसलिए है कि यहाँ ज्ञान को सापेक्ष बतलाते हुए भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि ज्ञान केवल मन (Mind) पर निर्भर नहीं है, बल्कि वस्तुओं के अपने धर्मों पर भी निर्भर है।"४४
जैन अनेकांतवाद या स्याद्वाद एवं पाश्चात्य व्यवहारवाद इनकी एक दूसरे से पूर्णतः तुलना नहीं की जा सकती। दोनों में केवल एक ही तथ्य में यह साम्य है कि दोनों के अनुसार सभी निर्णय सापेक्ष होते हैं। सभी निर्णय अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं और सदा के लिये सत्य नहीं माने जा सकते। परिस्थितियों पर इनकी सत्यता आधारित है। परिस्थिति की उपेक्षा नहीं की जा सकती। परन्तु यह याद रखना चाहिये कि यह जैन दर्शन का तात्त्विक सिद्धांत है। तत्त्व का वास्तविक स्वरूप क्या होता है, इसके विषय में जैन दर्शन में अनेकांतवाद की स्थापना की गई है और तदनुकूल स्याद्वाद का प्रतिपादन किया गया है। पाश्चात्य व्यवहारवाद में तत्त्व को सिद्ध रूप में माना ही नहीं गया है। तत्त्व सिद्ध वस्तु नहीं है। परंतु जैन दर्शन तत्त्व को सिद्ध पदार्थ मानता है। पाश्चात्य व्यवहारवाद में तत्त्व का निर्माण मानव के अधीन है। जैन दर्शन का अपना एक सैद्धान्तिक पक्ष है जो पाश्चात्य व्यवहारवाद में नहीं है। जैन दर्शन में उपयोगितावाद का स्थान नहीं है परंतु पाश्चात्य व्यवहारवाद उपयोगितावाद का ही
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