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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
(ख) विधेय को सीमित या विशेष करना, और (ग) कथन को सोपाधिक (Conditional) एवं सापेक्ष (Relative)
बनाना ।' २३ उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि जैन आचार्यों ने कभी भी “स्यात" शब्द का अर्थ कदाचित, संभवतः, शायद हो सकता है, आदि अर्थों में नहीं किया है। उन्होंने उसे एक निश्चित अर्थ देने का प्रयत्न किया है।
“स्यात्' शब्द को सप्तभंगी में क्यों प्रयुक्त किया गया, इस संदर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैन-आचार्यों के समक्ष वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप के ज्ञान एवं उनके अभिव्यक्तिकरण संबंधी अनेक समस्याएँ थीं। उन्हीं समस्याओं के कारण ही जैन-आचार्यों ने प्रत्येक प्रकथन के परिमाणक के रूप में इसका प्रयोग किया है। उनकी वे सभी समस्याएँ अधोलिखित हैं -
(१) वस्तुओं की अनन्तधर्मात्मकता । (२) मानवीय ज्ञान की अपूर्णता
(३) भाषाभिव्यक्ति की सीमितता एवं सापेक्षता ।' २४ (१) वस्तुओं की अनंतधर्मात्मकता
अनेकांतिक दृष्टि के द्वारा वस्तु में विविध अपेक्षाओं से जो विविध गुण धर्म हैं, उन्हें जाना जा सकता है। एकान्तिक भाषा शैली उसके यथार्थ स्वरूप का प्रतिपादन नहीं कर सकती, जैसे - एक कलम अपेक्षा भेद से लंबी, छोटी, मोटी, पतली, हल्की, भारी तथा बहुरंग आदि अनेक धर्मों का युगपत् आधार है। यदि यह कहा जाय कि यह कलम “लंबी ही है'' तो इस वाक्य से इसमें उपस्थित अन्य धर्मों का लोप ही फलित होता है। अत: जैन आचार्यों ने कहा है कि बह आयामी जटिल तत्त्व की विवेचना बिना अपेक्षा के संभव नहीं है।” (“न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षा हि मिश्रितम् ।' २५) इसीलिए प्रकथन में कथन की सापेक्षता के सूचक “स्यात्' पद का प्रयोग करना आवश्यक माना गया है। (२) मानवीय ज्ञान की अपूर्णता
जैन विचारकों की दृष्टि में साधारण मानव का ज्ञान अपूर्ण एवं सीमित है। क्योंकि उसकी ऐन्द्रिक सामर्थ्य और तर्कबुद्धि या चिन्तन शक्ति सीमित है और इनके माध्यम से पूर्ण सत्य को जानने के उसके प्रयास आंशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं बढ़ पाते हैं । मानव जब अपने उसी आंशिक ज्ञान को ही एकमात्र सत्य मान लेता है तो वह सत्य, सत्य न रहकर असत्य हो जाता है। परन्तु उपर्युक्त कथन से यह नहीं
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