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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
डॉ० प्रतिभा जैन
“यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुनि वस्तुत्वनिष्पादक-परस्पर-विरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।।
अर्थात् जो सत् है वही असत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है।” १
अनेकान्त “अनेक” और “अन्त” इन दो शब्दों से मिलकर बना है। “अनेक का अर्थ है “एक से अधिक' जो दो से लेकर अनंत संख्या तक हो सकते हैं। “अन्त" का अर्थ वस्तु के गुण एवं धर्म से है। जब अनेक शब्द का प्रयोग वस्तु के गुणों के संदर्भ में किया जाता है, तब उसका तात्पर्य वस्तु के अनंत गुणों से होता है और जब "अनेक' शब्द का प्रयोग दो के संदर्भ में किया जाता है तब उसका तात्पर्य वस्तु के दो विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों से होता है। इस प्रकार अनंत गुण तथा परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दो या उससे अधिक धर्मों का एक ही वस्तु में सद्भाव होना अनेकान्त है। व्यावहारिक दृष्टि से अनंत गुण-धर्म से युक्त जड़-चेतन वस्तुओं के सर्व अंश ज्ञान हेतु उन्हें अनेक एवं संपूर्ण दृष्टिकोणों से अवलोकन करना ही अनेकान्त है।''२
दूसरे शब्दों में अनेकांतवाद के अनुसार किसी एक पदार्थ का वर्णन भिन्नभिन्न प्रकार हो सकता है। वह वर्णन अपनी-अपनी दृष्टि से सत्य होता है, किन्तु समग्र सत्य की दृष्टि से अधूरा ही रहता है। जिस समय वर्णन की सभी दृष्टियाँ एकत्र की जाती हैं उसी समय पदार्थ का यथार्थ वर्णन हो सकता है। तात्पर्य यह है कि भिन्न-भिन्न अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु का दर्शन करना ही सत्य दर्शन का वास्तविक मार्ग है और वही "अनेकांत' है। एक ही दृष्टि से किया हुआ वर्णन एकांत अर्थात् अधूरा होता है, इसलिये वह मिथ्या है।
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