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________________ 254 Multi-dimensional Application of Anekāntaväda में चतुर्गति के जीवों का भेद। व्यवहार का अर्थ है भेदक-भेद करने वाला। जैसे -सल्लक्खणं दवियं' द्रव्य का लक्षण 'सत्' है, इससे ही व्यवहार नहीं चलता है, इसलिए 'गुणपज्जयासयं'' अर्थात् गण और पर्याय का आश्रय लिया गया है। जीव है, अजीव है, इससे भी व्यवहार नहीं चल सकता है इसलिए 'सुर-णरणारय-तिरिया जीवस्स-१"देव, मनुष्य, नारक और तिर्यञ्च जीव के भेद किए गए हैं। व्यवहार में समय कहने से काम नहीं चल सकता है इसलिए समय के कई भेद किए गए। “समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती । मासो दु-अयण-संवच्छरो त्ति कालो परायत्तो२।। समय, निमेष, काष्ठा, कला, नाडी, दिनरात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष यह सब व्यवहार काल के भेद हैं/व्यवहार नय, संग्रहनय की तरह दो भेदों वाला है। (१) शुद्ध व्यवहार नय और (२) अशुद्ध व्यवहार नय । (४) ऋजुसूत्रनय “ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्र:८३।' 'ऋज' अर्थात सरल को जो सत्रित करता है, स्वीकार करता है, ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय है। यह नय पूर्ववर्ती या पश्चातवर्ती तीनों कालों के विषय को ग्रहण नहीं करता है, अपितु यह नय मात्र वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करता है। द्रव्य की अतीत और अनागत पर्यायों को छोड़कर केवल वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करने वाला ऋजसूत्र है- जैसे सभी शब्द क्षणिक हैं। जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहते हैं। ऋजुसूत्र नय शुद्ध और अशुद्ध अथवा स्थूल और सूक्ष्म इन दो भेदों वाला है जिसे निम्न आठ प्रकारों के रूप में समझा जा सकता है(i) क्रियमाणकृत एक भवन बनाया जा रहा है, वह दीर्घ कालीन क्रिया है, किन्तु जो कार्य वर्तमान में हो रहा है वह कृत है। यदि किए जा रहे कार्य को 'कृत' न माना जाए तो निर्माण के अन्तिम क्षण में भी उसे 'कृत' नहीं कहा जा सकता है। प्रथम समय में भवन की क्रिया पूर्ण रूप से अनिष्पत्ति रूप नहीं है। अत: जो निष्पत्ति हो उसे ही कृत मानना चाहिए। यह प्रत्युत्पन्न क्षण से उत्पन्न होने वाला अध्यवसाय है। (ii) निर्हेतुक विनाश प्रत्येक वस्तु उत्पाद और विनाश रूप है। उत्पत्ति ही वस्तु के विनाश का कारण है। वस्तु जो उत्पन्न हो रही है, वही विनाश को प्राप्त हो रही है, उत्पत्ति के पश्चात् विनाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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