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________________ 230 Multi-dimensional Application of Anekāntavāda अर्थतत्त्व- स्व और पर की प्रतीति अनेकान्त रूप है, इसलिए अनेकान्त की प्रतिपत्ति प्रमाण है। सैद्धान्तिक पक्ष 'निर्बाधबोध-विशिष्टः आत्मा प्रमाणम् । १२ सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ।१३ जहां सभी प्रकार की बाधाओं से रहित विशिष्ट ज्ञान/सम्यग्ज्ञान में अर्थ की प्रतीति होती है, वह ज्ञान प्रमाण है। संशयादि मिथ्याज्ञान है, वह अर्थ तत्त्व का निर्णय करने में समर्थ नहीं वह अविसंवादि भी नहीं, इसलिए प्रमाण नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द ने “णाणप्पमाणमादा'१४ ज्ञान प्रमाण आत्मा माना है। जो ज्ञान को प्रमाण नहीं मानते उनसे प्रश्न किया कि आत्मा ज्ञान प्रमाण नहीं, तो क्या वह ज्ञान से कम है या ज्ञान से अधिक है। यदि वह ज्ञान से कम है तो अचेतनत्व को भी नहीं जान पाएगा। यदि वह ज्ञान से अधिक है, तो ज्ञान के बिना वस्तु तत्त्व के अर्थ की प्रतीति कैसे कर सकता है? णाणं अप्प त्ति मदं, वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं । तम्हा णाणं अप्पा, अप्पा णाणं वा अण्णं वा ।।१५ ज्ञान आत्मा है, ज्ञान के बिना आत्मा नहीं हो सकता है, इसलिए ज्ञान आत्मा है, आत्मा ज्ञान है एवं वह अन्य रूप भी है, अर्थात् उसमें अन्य गुणों का भी समावेश है। इसमें अनेकान्त की गुण-गुणी दृष्टि है। एक आत्मा है, उस आत्मा में अनन्त अन्य गुण भी हैं, वे गुण जिस आधार पर टिके हुए हैं वे ही अन्य गुणों के आधार है। यह एक दृष्टान्त ज्ञान की व्यापकता को सिद्ध कर देता है रदणमिह इंदणीलं, दुद्धज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूय तं पि दुद्धं, वट्टदि तह णाणमत्थेसु ।।१६ इंद्रनील मणि नीला है, वह दूध में पड़ा है, इसलिए दूध नील रूप को प्राप्त हो गया, ऐसा देखा जाता है, दूध से मणि को निकालने पर पुन: दूध अपने स्वभाव को प्राप्त हो जाता है और इन्द्रनील मणि अपने स्वभाव को । ज्ञान इसलिए सदा सब स्थितियों में ज्ञान है। इस संसार में अनेक प्रकार के पुरुष हैं, जो वस्तु तत्त्व की यथार्थता को जानना चाहते हैं। वे सत् क्या है, असत् क्या है, धर्म क्या है, शील क्या है और शान्ति-अशान्ति क्या है? इन विविध धर्मों का बोध करना चाहते हैं। अनेकान्त में यही तो है - शान्ति के साथ अशान्ति पर विचार करता है, सत् के साथ असत पर विचार करता है और फिर संदेश देता है कि ज्ञान में शंकित न हों, शान्ति या अशान्ति में धैर्य का परित्याग न करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014009
Book TitleMultidimensional Application of Anekantavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages552
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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