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अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार
परमतत्त्व जड़ है या चेतन? पुन: यह जगत् सत् से उत्पन्न हुआ है या असत् से ? यदि यह संसार सत् से उत्पन्न हुआ तो वह सत् या मूल तत्त्व एक है या अनेक। यदि वह एक है तो वह पुरुष (ब्रह्म) है या पुरुषेतर (जड़तत्त्व) है, यदि पुरुषेतर है तो वह जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से क्या है? पुन: यदि वह अनेक है तो वे अनेक तत्त्व कौन से हैं? पुन: यदि यह संसार सृष्ट है तो वह स्रष्टा कौन है? उसने जगत् की सृष्टि क्यों की और किससे की? इसके विपरीत यदि यह असृष्ट है तो क्या अनादि है? पुनः यदि यह अनादि है तो इसमें होने वाले उत्पाद, व्यय रूपी परिवर्तनों की क्या व्याख्या है, आदि। इस प्रकार के अनेक प्रश्न मानव मस्तिष्क में उठ रहे थे। चिन्तकों ने अपने चिन्तन एवं अनुभव के बल पर इनके अनेक प्रकार से उत्तर दिये । चिन्तकों या दार्शनिकों के इन विविध उत्तर या समाधानों का कारण दोहरा था, एक ओर वस्तुतत्त्व या सत्ता की बहुआयामिता और दूसरी ओर मानवीय बुद्धि, ऐन्द्रिक अनुभूति एवं अभिव्यक्ति सामर्थ्य की सीमितता। फलत: प्रत्येक चिन्तक या दार्शनिक ने सत्ता को अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया।
सामान्यतया इस अनैकान्तिक दृष्टि को जैन दर्शन के साथ जोड़ा जाता है और इस सत्य को नकारा भी नहीं जा सकता है, क्योंकि अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी के विकास का श्रेय जैन दार्शनिकों को है। फिर भी इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि अनेकान्त दृष्टि केवल जैन दार्शनिकों की एकमात्र बपौती है। दार्शनिक मत वैभिन्य
और उनके समन्वय के प्रयासों की उपस्थिति के संकेत तो वैदिक और औपनिषदिक साहित्य में भी मिलते हैं। मात्र यही नहीं अन्य भारतीय दर्शनों में भी ऐसे प्रयास हुए हैं। अनेकान्तवाद के विकास का इतिहास
भारतीय साहित्य में वेद प्राचीनतम है। उनमें भी ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है उसके नासदीयसूक्त (१०:१२:२) में परमतत्त्व के सत् या या असत् होने के सम्बन्ध में न केवल जिज्ञासा प्रस्तुत की गई, अपितु अन्त में ऋषि ने कह दिया कि उस परसत्ता को न सत् कहा जा सकता है और न असत्। इस प्रकार सत्ता की बहुआयामिता और उसमें अपेक्षा भेद से परस्पर विरोधी गुण धर्मों की उपस्थिति की स्वीकृति वेदकाल में भी मान्य रही है और ऋषियों ने उसके विविध आयामों को जानने-समझने और अभिव्यक्त करने का प्रयास भी किया है। मात्र यही नहीं ऋग्वेद (१ : १६४ : ४६) में ही परस्पर विरोधी मान्यताओं में निहित सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए यह भी कहा गया है- एकं सद् विप्राः बहुधा वदंति अर्थात् सत् एक है विद्वान् उसे अनेक दृष्टि से व्याख्यायित करते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनैकांतिक दृष्टि का इतिहास अति प्राचीन है। न
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