________________ वैशाली दिग्दर्शन 297 प०-वे गुष्ठ सम्राटों के ही हैं। तुमने एक सिक्का देखा होगा, जिसमें समा चन्द्रगुप्त विकमाहित्य एक धनुष जिम बड़े हैं। इन्हीं सम्राट् के समय में बीन से एक यात्री आया - फाझान। (घंटों की ध्वनि) फा०-यही वैशाली है ?" स्वर-हाँ, इधर से आओ यात्री / तुम चीन देश से कब घले थे ? फा० - कई बरस हुए / भिक्खु, यह कौन भवन है ? स्वर-कूटागारशाला / यहीं तथागत प्रायः विहार करते और उपदेश देते थे। कैसा रमणीक भवन है ! यह तुम लिख रहे हो यात्री ? फा०–हाँ, लिख रहा हूँ, जिससे मेरे देश के निवासी वैशाली की दिव्य नगरी की शोभा का अन्दाजा लगा सके। और बताओ, भिक्खु, इस पावन नगरी का माहात्म्य और बताओ। / (घण्टों की ध्वनि / पट परिवर्तन) पयिक-दो सौ साल बाद उसी चीन देश से एक और यात्री वैशाली आया और उसका नाम था-ह्वेनसांग / उसने लिखा है(अन्य स्वर में-) "इस देश की भूमि उत्तम और उमजाल है। फल और फूल अधिक होते हैं / प्रकृति स्वमाविक और सा है तथा मनुष्यों का आचरण पूछ सन्या है। ये लोग धर्म से प्रेम और विद्या की बड़ी प्रतिष्ठा करते हैं। विरोधी और बौद्ध दोनों मिल जुल कर ग्रा०-पथिक। प०-हाँ! ५०-क्या वैसी वैशाली फिर नहीं होगी? ५०-माई ! उसी की खोज में मैं इन खंडहरों में मारा मारा फिर रहा हूँ। इस लिच्छवि भूमि की पवित्र धूलि, इसकी ये ध्वस्त मूर्तियां, यह अकेला अशोकस्तम्म, ये सूखते-से ताल- सभी में बीते हुए वैभव की कहानियाँ विखरी पड़ी हैं / ग्रा०-उनमें एक और चीज छिपी पड़ी है, पथिक ! १०-क्या ? ग्रा०-आने वाले वैभव के सपने ! प०-तुम्हारी बात मैंने नहीं समझी, भाई ! 38