________________ वैदिक काल में वैशाली मथुराप्रसाद दीक्षित 'ऋग्वेद संहिता' आर्य जाति का प्राचीनतम धर्म-ग्रन्थ है। इसमें आर्यों के आदितम निवास का परिचय है। इसके मन्त्रों की आलोचना करने से यह ज्ञात होता है कि इनके रचना-काल में आयंगण पञ्चनद प्रदेश के आगे पूर्व की ओर नहीं बढ़ पाये थे। पञ्चनद को वेदों में 'सप्त-सिन्धु' अर्थात् सात नदियोंवाला देश कहा गया है। पारसियों के धर्म-अन्य 'अवस्वा' में इस प्रदेश का नाम 'हप्त-हिन्दु' है। पारसी लोग 'स' की जगह प्रायः 'ह' का ही प्रयोग और उच्चारण किया करते हैं। यह उच्चारण-भेद है, जिस प्रकार आसामवाले "चाय" को "शाय" और 'शुक्रवार' को 'खुखुरबार' कहते हैं। ऋग्वेदोक्त मौगोलिक विवरणों की आलोचना करने से पता चलता है कि पंजाब से ठीक दक्षिण की ओर जो राजपूताना-प्रदेश है, वहाँ पहले एक समुद्र था। वर्तमान सिन्धुप्रान्त भी किसी समय समुद्र के गर्भ में अवस्थित था। इस बात को सभी भू-तत्वविशारद स्वीकार करते हैं। राजपूताना तथा सिन्धु-प्रदेशों की सुवस्तृत बालुका-राशि आज भी इस बात का प्रमाण है कि इस जमीन पर किसी जमाने में एक वृहत् सपुद्र था। ऋग्वेद में पूर्व एवं पश्चिम (अपर) समुद्र का भी उल्लेख पाया जाता है। यह पूर्व समुद्र आधुनिक वंगोपसागर नहीं था। यह पंजाब के ठीक पूर्व भाग में अवस्थित था। ऋग्वेदीय युग में यह समुद्र समग्र गांगेय प्रदेश अर्थात् पाञ्चाल, कोशल, वत्स, मगध, विदेह, अंग और बंग आदि देशों की जमीन पर क्रीड़ा कर रहा था। यही कारण है कि ऋग्वेद में इन देशों की चर्चा नहीं पायी जाती है; क्योंकि उस समय तक ये सभी देश सुविस्तृत जलराशि में निमग्न थे-समुद्र-गर्भ से ये देश तबतक वहिर्भूत नहीं हुए थे। ऋग्वेद में लोक-प्रसिद्ध गंगा और यमुना आदि नदियों की चर्चा का भी प्रायः अमाव ही है। जहां पर सिन्धु, सरस्वती, दृषद्वती, विपाशा आदि नदियों की चर्चा बार-बार आती है, वहां गंगा-यमुना जैसी प्रशस्त नदियों की एक या दो जगह चर्चा देख कर हृदय में भारी विस्मय उत्पन्न होता है। किसी-किसी पुरातत्त्व-विशारद के मतानुसार गंगा-यमुना के ये नाम