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________________ वैशाली, जैनधर्म और जनदर्शन 167 सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् चारित्र के द्वारा कोई मो जीव-चाहे वह पुरुष हो, स्त्री हो, या नपुंसक हो-मोक्ष प्राप्त कर सकता है। ____ आपने चार भावनाएं बताई.-१. मैत्री, 2. मुदिता, 3. करुणा और 4. उपेक्षा / इन चार भावनाओं द्वारा सुवासित मन शुभ कर्म का उपार्जन करता है तथा 1. क्रोष, 2. मान, 3. माया और 4. लोभ ये चार कषाय तथा 1. स्पर्श-लालसा, 2. रसलालसा, 3. गन्ध-लालसा, 4. रूप-लालसा तथा 5. शब्द-लालसा ये पांच लालसाएं अशुभ कम एकत्र करती हैं। ___भगवान् ने अट्ठारह पापस्थानक बताये-१. हिंसा, 2. मृषावाद, 3. अदत्तादान, 4. मैथुन, 5. परिग्रह, 6. क्रोध, 7. मान, 8. माया, 9. लोम, 10. राग, 11. द्वेष, 12. कलह, 13. अभ्याख्यान, 14. पैशुन्य, 15. रति-अरति, 16. पर-परिवाद, 17. मायामृषावाद और 18. मिथ्यादर्शन शल्य / संसार से मुक्ति के लिए भगवान ने श्रावकों के लिए बारह व्रत बताये -1 स्थूल प्राणातिपातविरमण, 2. स्थूलमृषावादविरमण, 3. स्थूलअदत्तादान विमरण, 4. स्वदारसन्तोष और 5. इच्छापरिणाम-ये पांच अणुव्रत कहे जाते हैं / 6. दिग्विरतिव्रत, 7. भोगोपभोगव्रत तथा 8. अनर्थदण्डविरतिव्रत-ये तीन गुणव्रत हैं / और 9. सामायिक, 10. दिशावकाशिक, 11. पोषध तथा 12. अतिथिसंविभाग- ये चार शिक्षाव्रत कहे जाते हैं। श्रावकों के लिए ये जो पांच अणुव्रत स्थूल रूप में हैं, वे साधु के लिए महाव्रत हो जाते हैं; क्योंकि साधु हिंसादि मन-वचन और काय से न करता है, न कराता है और न करनेवाले का अनुमोदन करता है। अब मैं आपलोगों का अधिक समय नहीं लेना चाहता। जैनधर्म और जैनदर्शन स्वतः ऐसे विषय हैं, जिनका वर्णन एक व्याख्यान में समाप्त नहीं हो सकता। वैशाली-संघ की दिन-दिन जो अभिवृद्धि हो रही है, उसके लिए मैं स्थानीय जनता को धन्यवाद करता हूँ। संघ के संस्थापक श्रीजगदीशचन्द्र माथुर अब यहां फिर आ गये हैं, अतः आशा है कि वैशाली-संघ आपकी देखरेख में और भी अधिक गति से प्रगति करेगा। बिहार-सरकार ने यहाँ 'प्राकृत-जैनशास्त्र और अहिंसा-शोध-संस्थान' की स्थापना विश्वविद्यालय के स्तर पर करके सचमुच एक बड़ा काम किया है / उसके लिए जिस रूप में बिहार-सरकार का धन्यवाद किया जाय, थोड़ा है। आवश्यकता इस बात की है कि शोध-संस्थान की एक अपनी पत्रिका भी हो, जिससे बाह्य जगत् घोष-संस्थान के कार्यों से और शोध-संस्थान बाह्य जगत् से और प्राकृतमें काम करनेवालों से सम्पर्क स्थापित कर सके।
SR No.012088
Book TitleVaishali Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogendra Mishra
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology and Ahimsa
Publication Year1985
Total Pages592
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth
File Size17 MB
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