________________ वैशाली, जैनधर्म और जैनदर्शन 165 . वैशाली की इस लड़ाई ने भारतीय इतिहास में एक मोड़ ला दिया और भारत-भूमि से गणराज्य समाप्तप्राय हो गये / सम्भवतः, इसी कारण गोशालक ने इसे 'चरमयुद्ध' की संज्ञा दी है। कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में आता है कि भगवान महावीर ने वैशाली-वाणिज्यग्राम में 12 वर्षावास बिताये थे और आवश्यकचूणि तथा 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र' में छपावस्था में 3 बार भगवान के वैशाली आने का वर्णन दिया है। भगवान् वैशाली के निकट के ही तो निवासी थे; पर वैशाली के विहार-सम्बन्धी जो विवरण प्राप्त हैं, उनसे ही आप सभी को स्पष्ट हो जायगा कि भगवान ने अपने छप्रस्थ काल में कर्मों के क्षय के लिए कैसी उन / तपस्या की थी। . प्रथम बार भगवान् अपने छठे वर्षावास में वैशाली आये और एक कम्मारशाला में ध्यान में आरूढ हो गये। उस कम्मारशाला का मालिक लोहार 6 महीने की बीमारी के बाद उस दिन जब पहले-पहल कारखाने में आया, उसने भगवान् को देखा। अमंगल समझकर वह भगवान् को मारने दौड़ा / शक्र ने आकर भगवान की रक्षा की। दूसरी बार भगवान् १०वें वर्षावास में आये / इस बार लड़के पिशाच समझकर भगवान् को तंग करने लगे। उस बार भगवान के पिता सिद्धार्थ के मित्र शंख राजा ने आपकी रक्षा की। तीसरी बार वह अपने ११वें वर्षावास में आये और नगर के बाहर समरोद्यान में बलदेव के मन्दिर में चातुर्मासिक तप करके आपने अपना चातुर्मास यहीं बिताया। इस नगर में जिनदत्त नामक एक श्रेष्ठी रहता था। उसकी ऋद्धि-समृद्धि क्षीण हो गई थी। अतः, लोग उसे जीर्ण श्रेष्ठी कहते थे। वह प्रतिदिन भगवान् का वन्दन करने जाता और आहारपानी के लिए विनती करता। पहले उसने सोचा कि मासिक व्रत के बाद भगवान् आयेंगे / जब नहीं आये, तब द्विमासिक तप की बात सोची। इसी प्रकार चार मास बीत गये / पारणा के दिन भगवान् भिक्षा लेने निकले और आपने अभिनव श्रेष्ठी के घर पारणा की। भगवान महावीर स्वपराक्रम से ही मोक्ष-प्राप्ति की बात स्वीकार करते थे। उनके दीक्षा ले चुकने के बाद एक बार इन्द्र ने उनसे कहा- "हे देवार्य ! भविष्य में आपको बड़े कष्ट झेलने पड़ेंगे / अतः, आज्ञा हो तो मैं आपके साथ रहूँ।" इस पर भगवान ने कहा था : नापेक्षां चक्रिरेऽहंन्तः परसाहायिकं क्वचित् / नैतद्भूतं भवति वा भविष्यति च जातुचित् // यदहन्तोऽन्यसाहाय्यादजयन्ति हि केवलम् // केवलं केवलज्ञानं प्राप्नुवन्ति स्ववीय॑तः / स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परमं पदम् //