________________ GOLD.. वैशाली, जैनधर्म और जैनदर्शन* आचार्य विजयेन्द्र सूरि सभ्य महोदय, वैशाली-संघ के महोत्सव के अवसर पर आज आपलोगों के सम्मुख कुछ कहते हुए मुझे हर्ष हो रहा है / मुझे और भी प्रसन्नता होती, यदि मैं स्वयं आप सबके बीच उपस्थित हो सकता; और आप विद्वज्जनों से प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने तथा बातचीत करने का मुझे स्वयं अवसर प्राप्त होता / पर, वृद्धावस्था तथा आँखों में मोतिया आ जाने के कारण असमर्थतावश मैं आपलोगों के बीच स्वयं उपस्थित हो सकने से वंचित रह गया, इसका मुझे दुःख है। आप जानते होंगे कि, जैनसाधु पादविहार-मात्र करते हैं / और पाद-विहार में भी उनके लिए कुछ प्रतिबन्ध हैं / यह परम्परा पहले भारत में सभी धर्मों के साधुओं के लिए थी / अन्य साधुओं ने तो यान का सहारा लेना प्रारम्भ कर दिया; पर जैन-साधु अब तक अपनी परम्परा का निर्वाह करते चले आ रहे हैं। वैशाली-संघ-सरीखी सांस्कृतिक संस्था ने अपना वार्षिक अधिवेशन महावीर-जयन्ती के अवसर पर करने का जो निश्चय किया, यह वस्तुतः उसके लिए एक शोभनीय निर्णय है। मेरे लिए तो वैशाली पूरे जीवन में आकर्षण का केन्द्र रहा है। 31 मार्च, 1945 ई०, को वैशाली-संघ की स्थापना हुई / 16 अप्रैल, 1946 ई० को मेरी पुस्तक 'वैशाली' प्रकाशित हुई, जिसमें मैंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भगवान् महावीरस्वामी का जन्मस्थान वैशाली के निकट स्थित कुण्डपुर नामक स्थान था। नवम्बर, 1947 ई० में वैशालीसंघ ने भगवान के जन्मस्थान-सम्बन्धो अपनी पुस्तक प्रकाशित की ओर अपने चौथे अधिवेशन से वैशाली-संघ ने अपना वार्षिक अधिवेशन भगवान् महावीर के जन्मदिन चैत्र शुक्ल प्रयोदशी के दिन मनाना प्रारम्भ किया। सन् 1948 ई० में जब वैशाली-अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकाशित हुआ तो उसमें भी मैंने भगवान् के जन्मस्थान के सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये। सन् 1940 ई० में कलकत्ता में वर्षावास बिताने के बाद लौटते हुए मैं स्वयं वैशाली आया था। मुझे अपनी उस वैशाली-यात्रा का स्मरण अब भी बड़े सुखद रूप में है। यहाँ के नागरिकों का सौहार्द आर वैयावृत्त्य अनुकरणीय है। यहां के एक स्थानीय संन्यासी ने * उनीसवें वैशाली महोत्सव (6 अप्रैल 1963) के अवसर पर प्राकृत जैन शोषसंस्थान की विद्वत्सभा में लेखक को अनुपस्थिति में पठित /