________________ 154 Homage to Vaisali साथ किया कि शायद ही किसी भारतीय ने वैसा किया हो। भारत के पुरातत्व के उदार करने में, उनकी प्रेरणा से भारत सरकार ने आर्कोलॉजिकल सर्वे का आरम्म किया। जिस समय कनिंघम यहाँ आये थे, उन्हें यह भी पता नहीं था कि उनके पहले और भी बहुत से विद्वान आये थे और उन्होंने यह अनुमान लगाया था कि यही स्थान पुरानी वैशाली नगरी होगी। लेकिन, कोई निश्चित प्रमाण उन्हें नहीं मिला था। कनिषम साहब में बड़ी दिव्य दृद्धि दी। उन्होंने एक दैवी प्रेरणा से सत्य प्रमाणित किया और यह सिद्ध कर दिया कि प्राचीन वैशाली का स्थान यही होना चाहिए / आप कल्पना कीजिए कि उन दिनों यात्रा की कितनी असुविधा थी, सरकारी सहायता प्राप्त नहीं थी, वे यहां की भाषा नहीं समझ सकते थे, लोग उन्हें अजनबी समझते थे, लेकिन फिर भी उन्होंने इस सुदूर देहात में आकर अध्ययन किया और सप्रमाण यह बतलाने का साहस किया कि वर्तमान बसाढ़ गांव ही प्राचीन वैशाली है / डॉ० कनिंघम सन् 1862 से 1884 ई. तक यहां कई बार आये / उनका यहाँ आना हमारे लिए बहुत महत्त्व की चीज है। इसलिए इस उत्सव को हम कह सकते हैं कि यह कनिंघम साहब के शुभागमन की शताब्दी है। इस दृष्टि से इस उत्सव का बड़ा महत्त्व है। डॉ० कनिंघम से पूर्व सन् 1834 ई० में श्रीएस्टीवेन्शन नामक एक दूसरे विदेशी विद्वान् यहाँ आये थे और इस भूमि के सम्बन्ध में अनुमान किया था कि यहीं वैशाली है / लेकिन कनिंघम साहब ने बड़ी खोज के साथ यहां के गांवों को, यहां के स्थानों को देखकर फाहियान, हुएनसांग के यात्रा-विवरणों को पढ़कर पहले-पहल दृढ़ता के साथ यह कहा था कि वैशाली यही है / परन्तु, फिर भी वैशाली है, यह सिद्ध नहीं हो सका / यह केवल कल्पना की बात रही, अनुमान की बात रही। कनिंघम साहब के कुछ उद्योग करने पर भारत-सरकार ने आर्कोलॉजिकल विभाग स्थापित किया और सन् 1903-4 ई० में और सन् 1913-14 ई० में दो और विदेशी विद्वानों का आगमन हुआ, जिनमें एक का नाम डॉ० ब्लॉस और एक का नाम डॉ० स्पूनर था। उन्होंने यहाँ कई जगह खदाइयां कीं। उस खदाई में बहत परानी चीजें तो नहीं मिल सकीं; क्योंकि पानी आ जाने के कारण आगे बढ़ना सम्भव नहीं था। लेकिन खुदाई में प्राप्त मिट्टी की मुहरों पर उत्कीर्ण लेखों से यह सिद्ध हो गया कि यही प्राचीन वैशाली है। वैशाली ज्ञान, कर्म और राजशक्ति की त्रिवेणी रही है। ब्राह्मण, बौद्ध और जैन परम्परा की त्रिवेणी रही है। ज्ञानशक्ति, आत्मशक्ति और धनशक्ति की त्रिवेणी रही है। इसमें कोई शक नहीं कि इस स्थान पर ज्ञान की बड़ी भारी साधना थी। बुद्धदेव ज्ञान की खोज में निकले, तो उन्हें और कोई स्थान नहीं दिखा, वैशाली में आकर ही उन्होंने शिक्षा ग्रहण की / ज्ञान की साधना के लिए यह बड़ी ही पवित्र भूमि मानी जाती रही है / वीरता के लिए तो वज्जियों और लिच्छवियों की चर्चा करना बेकार है। यह तो इतिहास-प्रसिद्ध है कि लिच्छवि अजेय शक्ति थे। यहां फूट डालकर अजातशत्रु ने उन्हें पराजित किया था। लिच्छवियों की शक्ति गुप्तकाल तक अक्षुण्ण रही, तभी समुद्रगुप्त जैसा सम्राट् अपने को 'लिच्छवि-दौहित्र' कहने में गर्व अनुभव करता था।