________________ वैशाली और दीर्घप्रज्ञ भगवान महावीर 115 रूप मानते थे। दोनों में जीवन के उच्चतम परिष्कार का स्रोत नीतिधर्म ही था। सांस्कृतिक दृष्टि से जनपद युग में भारतीय संस्कृति की जो मूल प्रतिष्ठा हुई, उस का जो क्षेत्रीय रूप उस युग में संपन्न था, उसी के आधार पर कालान्तर में जनपद संस्कृतियों के मिलने से राष्ट्रीय संस्कृति का स्वरूप विकसित हुआ। पुरराज्यों में कुछ छोटे और कुछ अधिक शक्तिशाली होते थे। वैसे ही जनपद और संघराज्य को भी कई कोटियां थीं। जिस प्रकार एथेन्स और स्पार्टी के बढ़ते हुए साम्राज्यों ने पुरराज्यों को हड़प लिया उसी प्रकार भारत में बहुत से बनपदों में राजनैतिक प्रभुत्व और ऐश्वर्य सत्ता पर चौका फेर कर ही मगध के विक्रान्त साम्राज्य का उदर हुआ / यद्यपि संघों की शम-प्रधान नोति समुदीर्ण साम्राज्य शक्ति के सामने विलुप्त हो गई, किन्तु अमरता और स्वतंत्रता, समता और व्यक्तिमहिमा, प्रज्ञा और थील के जिन आदर्शों का उस समय विकास हुआ, उनके सौरम से आज भी मानवीय सभ्यता सुरभित बनी हुई है / यही धर्म की चिरन्तन विजय है। AON