________________ वैशाली और दीर्घप्रज्ञ भगवान महावीर 111 है। इस पथ का यात्री सर्वथा निर्विकार और शुद्ध बनने का प्रयत्न करता है। इसी के अन्तर्गत महाव्रत और अणुव्रतों का जीवन है जिनका उपदेश अरण्यवासी भिक्षु और आगारिक गृहस्यों के लिये किया जाता है / अहिंसा की भावना शम का मूल है। जो व्यक्ति सर्व भूतों के हित में निरत है, जो सबको आत्मवत् मानता है, वह सबके प्रति अद्रोह की भावना ही जीवन में रख सकता है। अपने प्राणों के उत्सर्ग करके भी वह दूसरों का कल्याण करने का प्रयत्न करता है। किन्तु अहिंसा निराकरणात्मक धर्म नहीं है। कर्तव्य के रूप में प्राणीमात्र के प्रति प्रेम और हितबुद्धि की भावना सच्ची अहिंसा है जिसकी मानव को आवश्यकता है / जो व्यक्ति शुद्ध अहिंसा-वृत्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है वह सारे विश्व के लिये चुनौती है। वह स्वकेन्द्र की परिधि का अनन्त विस्तार कर लेता है। उसका अविचाली भाव उसे अभय प्रदान करता है। वह मृत्यु, मय और शोक से ऊपर उठ जाता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन सब प्रजाओं के लिये उन्मुक्त हो जाता है। किन्तु व्यक्तिगत जीवन की यह विभूति व्यावहारिक जीवन को भी प्रभावित करती है। समाज और राष्ट्र का जीवन एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन, इनका मा सच्चा आधार शम की नीति ही हो सकती है। शम की नीति का उल्टा मार्ग साम्राज्यवाद है। आज हमारे राष्ट्र ने जान-बूझकर यम की नीति का अवलम्बन लिया है और सब प्रकार के साम्राज्यवाद को जहाँ भी वह सिर छिपाए हैं, भावात्मक चुनौती दी है। धर्मभावना, अहिंसामावना या शम भावना एक ही मूल प्रवृत्ति के रूप है। जहाँ धर्मनीति और राष्ट्रनीति का संगम है, उसी रसपूर्ण स्रोत से इस जीवन-मार्ग का जन्म होता है। गणराज्य की शम नीति ___ यह कहना उचित होगा कि राष्ट्र में शम की नीति का नाम गणतंत्र प्रणाली है और युद्ध या पर-उत्पीड़न की नीति का नाम सामान्यतन्त्र है। बाह्यरूप गणतंत्र का रखते हुए भी गण साम्राज्यवादी बन सकते हैं / पर वो गण विशुद्ध शम की नीति अपना चुके हैं उनका तेज और शीलं दूसरे ही प्रकार का हो जाता है / इस प्रसंग में महाभारत समा-पर्व के उस प्रकरण (14, 2-6) की ओर ध्यान जाता है जिसमें साम्राज्य शासन पद्धति और गण-शासन पद्धति के मौलिक भेद और तारतम्य का विवेचन किया गया है। मगध के साम्राज्यवाद का अन्त करने के लिये यात्रा का विचार मन में लाकर कृष्ण युधिष्ठिर के साथ इन दोनों नीतियों के गुण दोषों का तुलनात्मक विचार करते हैं / हमारे आज के इसो क्षेत्र में एक ओर लिच्छवि या वृज्जियों के गणराज्य और दूसरी ओर मगध के प्रबल साम्राज्यवाद की लीलास्थली थी। इसीलिए भी यह प्रसंग मार्मिक और अवसरोचित है। प्राचीन परिभाषा में संघ-पद्धति के लिये पारमेष्ठ्य शब्द का प्रयोग हुआ था / तदनुसार पारमेष्ट्य और साम्राज्य दोनों की निम्नलिखित विशेषताएं बताई गई हैं: (1) पारमेष्ट्य शासन में प्रत्येक गृह या कुल में एक-एक राजा होता है। कुल-पद्धति पारमेष्ठ्य शासन का मूलाधार है; ऐश्वर्यसत्ता कुलों में समान रूप से बंटी रहती है (गृहे गृहे हि राजनः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः)।