________________ वैशाली और दीर्घप्रज्ञ भगवान महावीर 109 हमारे सदाचार की शीत वायु पाकर ही धर्म का दिव्य जल आकाश से पृथ्वी पर आया करता है। अव्यक्त धर्म-तत्व को जीवन में व्यक्त बना लेना ही मानव का बडा कौशल है। धर्म-तत्त्व __ यह धर्म-तत्त्व बहुत ही सूक्ष्म, नित्य, व्यापक, देशकाल में सर्वत्र वितत महनीय भाव है। इसी की पूर्णतम सशक्त अभिव्यक्ति मानव का अध्यात्मजोवन, नैतिक जीवन और सदाचार पर प्रतिष्ठित सामाजिक जीवन है / उसे ही सत्य कहते हैं / सत्य और धर्म पर्यायवाची हैं / प्रत्येक आचार्य, सिद्ध, केवली, ज्ञानी, ऋषि, बुद्ध, महात्मा, तीर्थकर, महामानव इसी नित्य धर्म-तत्व का निज प्रयत्न से जीवन में प्रत्यक्ष करता है और उनका वह धर्ममय जीवन ही मानव का पथ-प्रदीप बनता है / शुद्ध धर्म-तत्त्व सम्प्रदायों की सीमा से सीमित नहीं होता / वह तो उन सब में अविभक्त रहता है। आकाशचारी मेघों के अमृत जल जिस प्रकार पृथ्वी के स्वच्छ सरोवरों में संचित हो जाते हैं, वैसे ही शाश्वत धर्म-तत्त्व के भाव मानवीय मन में पहले प्रत्यक्ष रूप में आते हैं और उसी शक्ति से मौतिक जीवन में अवतीर्ण होते हैं / धर्मान्वेषी संप्रदाय तो सत्य की प्रयोगशालाएँ मात्र हैं। किसी मत या पंथ का अनुयायी बनने मात्र से व्यक्ति का कल्याण नहीं हो सकता। वह एकांगी गति है। मन, वचन और कम में सत्य को एक साथ गति सर्वांगीण गति है। वही सत्य सत्य है जो 'त्रिसत्य' हो, अर्थात् जो मन का सत्य है, वह वाणी का सत्य हो और जो मनवाणी का सत्य है वही कर्म का भी सत्य बना हो। इस प्रकार का सत्य या धर्म विश्व का सच्चा आलोक है। वह विश्वमानव के जीवन का चमकीला प्रकाश है / उसी के लिये कहा गया है _ नमो धर्माय महते धर्मो धारपति प्रजाः जिस तत्व से लोक में प्रजाओं के जीवन को सच्ची प्रतिष्ठा मिलती है, वे ही धारणात्मक नियम धर्म है। मनु, वेद-व्यास, वाल्मीकि, इसी महाघ धर्मतत्त्व को आराधना करते हैं। वाल्मीकि के 'रामो विग्रहवान् धर्मः' इस अनुभव में उस गुणसमष्टि की संज्ञा धर्म है, राम का जीवन जिसका प्रतीक मात्र है। भगवान् बुद्ध और तीर्थंकर महावीर ने उसी धर्म-तत्त्व को जीवन रूपी समुद्र के मंथन से प्राप्त किया था। यह अखंड दृष्टि धर्मों के समवाय की दृष्टि है। समवाय ही संप्रति सहिष्णुता और सम्मिलन है। वह दिव्य असीम भाव है जिसकी छाया में व्यक्ति का मन विश्व के साथ एक होने के लिये उमगता है। आज के मानव को इस समवाय दृष्टि की सबसे अधिक आवश्यकता है। विश्व के क्षितिज पर आज जिस नये मानव का जन्म हो रहा है, वह श्रेष्ठप्रज्ञा, शील, मानव-प्रेम, सहानुभूति, मैत्री, करुणा आदि भावनाओं से प्रतिपालित विश्व मानव का स्वरूप है / जो धर्म इस विश्व मानव का निर्माण करने की क्षमता रखता है, वही उपादेय है। इस समय प्रत्येक धर्म को आत्मशुद्धि की अग्नि में तपना होगा। प्रत्येक धर्म इस कसौटी पर कसा जा रहा है / विश्व प्रेम की कंचनवर्णी रेखा धर्म के खरे-खोटेपन को प्रमाणित करानेवाली होगी। अतएव यह युग आत्मप्रशंसा या महता कंठ से अपने गुण-बखान करने का नहीं है। धर्म या मत