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पू. आ. श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. की साधर्मिकों के लिए भावना को ध्यान में रखकर हम भी साधर्मिक भक्ति में सक्रिय हों
पू. आ.भ. श्री सूर्योदय सूरीश्वर जी के शिष्यरत्न पू. पन्यास प्रवर श्री राजरत्न विजय जी गणिवर
विख्यात हिन्दी कवि निराला जी, जैसे उत्तम कवि थे वैसे ही उत्तम करुणावंत भी थे। अनजान किसी दीन दुखी को देख उनका हृदय द्रवित हो जाता था। एक बार सख्त गर्मी के दिनों में इलाहाबाद के राजमार्ग पर एक वृद्ध व्यक्ति को लकड़ी का गट्ठर ले जाते हुए देखा। निराला जी से देखा न गया वो उनके पास पहुंच गये। वे आग्रह पूर्वक उसको अपने घर ले गये। भरपेट भोजन करवाया और आग्रह करके कपड़े, मोजे, बूट, छतरी आदि दिये।
आभार व्यक्त करते हुए उस वृद्ध ने कहा इतनी सारी चीजें आपने मुझे क्यों दी ?आप तो मुझे जानते नहीं निराला जी ने उत्तर दिया, “भाई मैं तो आपको जरूर पहचानता हूं। आप मेरे करोड़ों देश बंधुओं में से एक हैं। मेरे मन की तसल्ली के लिए, खुशी के लिए, आप को यह सारी चीजें लेनी पड़ेंगी।" वृद्ध तो चकित हो गया निराला जी की करुणा हमदर्दी देखकर।
करुणाशील व्यक्ति ऐसे होते हैं कि जो दूसरों के दुख देखकर स्वयं उसका अनुभव करें। मुझे लगता है कि दिवंगत पूज्य युगवीर आचार्यदेव श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर महाराज भी ऐसे ही थे। एक करुणाशील व्यक्तित्व के धारक थे, जैन संघ के एक आवश्यक अंगरूप श्रावक-श्राविका वर्ग के कई परिवारों को विषम और विवश परिस्थितियों में से गुजरते अपनी नज़रों से देखकर वात्सल्यनिधि संघनायक की तरह साधर्मिक भक्ति के क्षेत्र में एक मिशन की तरह कार्यरत रहे। ऐसे समय में कई बार ऐसा भी बना होगा कि उनका हृदय
और आंखें करुणा से भर गये होंगे। आंखों से आँसुओं की धारा भी बही होगी. वो आंस नहीं, संत के वो मोती थे एक कवि ने कहा भी है
"हर आंख यहां यूं तो बहुत रोती है,
हर बूंद मगर अश्क नहीं होती है। पर देख के जो रोते है जमाने के गम, उस आंख से आंसू गिरे वो मोती हैं।
उनकी जीवन संध्या में एक ऐसा भी प्रसंग बना है, जिसमें उनकी साधर्मिकों के प्रति भक्ति भरी संवेदना अभिव्यक्त होती है। गुरु वल्लभ जब आखिरी वक्त बम्बई पधारे, तब साधर्मिक परिवारों की भक्ति के लिए रु. 11
लाख इकट्ठा करने की घोषणा की थी। सिर्फ उद्घोषणा ही नहीं, उन्होंने इसके लिए अभिग्रह भी लिया था कि जब तक साधर्मिकों के लिए 11 लाख का फंड इकट्ठा न होगा तब तक मैं संपूर्ण रूप से दूध का त्याग करूंगा। जीवन के आठ दशक व्यतीत हो जाने पर भी ऐसी वृद्ध आयु में भी उनके हृदय में ऐसी भावना का उठना प्रकट होना और प्रतिज्ञा का पूरा होना और कुछ नहीं, उनकी साधर्मिक संवेदना की उत्कृष्ट भावना का द्योतक है। इस भावना के बल पर ही जगह-जगह महावीर जैन विद्यालय, औषधालय, साधर्मिक भक्ति के विविध कार्य उनकी प्रेरणा से और भावना से साकार किये गये, ऐसा हम कह सकते हैं।
जीवन संध्या के बम्बई चातुर्मास में उन्होंने ऐसा स्वप्न संजोया था कि बम्बई में एक विशाल धर्मशाला बने, दूसरे शहरों से आने वाले मध्यमवर्गीय जैनों के लिए जो संस्था आशीर्वाद रूप बने, यह स्वप्न उनके कालधर्म के बाद पूज्य आचार्यदेव श्री धर्म सूरीश्वर जी महाराज के प्रयत्नों से भूलेश्वर, लाल बाग में बनी, उस जमाने में 21 लाख के खर्च से वह धर्मशाला बनी। साधर्मिक भक्ति के क्षेत्र में इस काल में सीमा चिन्ह जैसे कार्य करने वाले पू. आचार्यदेव विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज की स्वर्गारोहण शताब्दी के पुनीत प्रसंग पर हम भी ऐसे जन सेवा के कार्यों में रत रहे, यही इस समय में महत्व का कर्त्तव्य गिना जायेगा।
गुजराती लेख का हिन्दी अनुवाद
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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