________________
HINDI
था, कि छोटी आयु में आपका परिचय श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र गुरु के तेजस्वी तथा यशस्वी गणिवर श्री इन्द्र विजय जी से हुआ। गणि जी स्वयं भी परमार क्षत्रिय ही थे तथा उनका जन्म स्थान भी सालपुरा होने के कारण परस्पर आकर्षण का कारण बना, जिसके फलस्वरूप प्रथम भेंट में गुरुदर्शन करते ही आपने अपने आप को आत्म-कल्याण के लिए गुरु चरणों में समर्पित कर दिया। पारस्परिक विचार-विमर्श का राम सिंह के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। स्वयं गणि जी ने भी बालक का खिला मस्तक देखकर तथा उनके शरीर में एक महान आत्मा को पहचान कर विक्रम संवत् 2021 मिगसर सुदि छट्ठ को बोड़ेली में आपको सत्य व अहिंसा की सतत् प्रेरणा देने वाले जैन मुनि का वेष धारण करवा कर आपका नाम रखा गया 'मुनि रत्नाकर विजय'।
आप इतनी तीक्ष्ण और निर्मल प्रतिभा के धनी थे कि शीघ्र ही आपने जैन धर्म सम्बन्धी मौलिक शास्त्रों का अध्ययन पूर्ण कर लिया तथा आपकी गिनती राजा और रंक के प्रति समवृत्ति रखने वाले एक अलमस्त फकीर के रूप में की जाने लगी। आप की वाणी में गहरे अध्ययन और अनुभव का दर्शन होता था। आपकी सिद्धि, आपके त्याग में आत्मीयता, मधुर वाणी, शान्त रस तथा प्रभु भक्ति से आंकी जा सकती है। आपका सान्निध्य पाकर प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में आत्म संतुष्टि का अनुभव करता है। आपकी योग्यता को देखते हुए आपको वि.सं. 2040, फाल्गुन सुदि दूज को गणि पद के तीन वर्ष बाद वि.सं. 2043, माघ सुदि तीज को पूना में पन्यास पद तथा पाँच वर्ष उपरान्त वि.सं. 2048, वैशाख सुदि दूज को पालीताणा में आचार्य पद से विभूषित किया गया।
___आपको आचार्य पद अलंकरण के अवसर पर गच्छाधिपति श्रीमद् विजयेन्द्रदिन्न सूरि जी म.सा. ने कहा था- रत्नाकर' ! मैं तुझे बहुत उच्च कोटि का आचार्य देखना चाहता हूँ। आपने भी अपने गुरु के वचन को सार्थक करते हुए खूब शासन प्रभावना के लिए कार्य किए और अपने गुरुओं के नाम को रोशन किया। आपने धर्म को एक नई दिशा व चेतना प्रदान की है जिससे जाति, सम्प्रदाय का भेदभाव मिटा और पारस्परिक सौहार्द भाईचारा बढ़ा। गच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरि जी म. आपके आदर्श संयम व चरित्र द्वारा शासन प्रभावना के कार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दिनांक 14.05.2000, रविवार तदनुसार वि.सं. 2057 वैसाख सुदि एकादशी को मेड़ता रोड़, फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ पर संक्रान्ति के पावन अवसर पर आपको अपना पट्टधर घोषित कर सुधर्मा स्वामी पट्ट परम्परा के क्रमिक 77वें पट्ट पर आप श्री जी को प्रतिष्ठित किया। दिनांक 4 जनवरी 2002 को पूज्य गच्छाधिपति जी के अचानक देवलोक गमन हो जाने के कारण सम्पूर्ण समाज के मार्गदर्शन का भार आपके सुदृढ़ कन्धों पर गया तथा आपने वीतराग प्रभु की वाणी के अनुसार कठोरता तथा दृढ़ता से श्रमण जीवन-यापन करने, सम्यक्त्व को निर्मल करने वाले तथा “जैनं जयति शासनम् का जयघोष करने वाले आदर्श संयमी आचार्य के रूप में अपने उत्तरदायित्व को निभाना शुरू किया। ऐसे सद्गुणों के भण्डार, जप-तप-संयम-आराधना-साधना-उपासना के मसीहा, परोपकारी, अद्भुत चमत्कारी, महाविद्वान, गच्छाधिपति श्रीमद् विजय रत्नाकर सूरि जी के चरणों में अभिनन्दन, कोटि-कोटि वन्दन !
अर्द्धशताब्दी आई है।
जय वल्लभस
श्री मद् विजय
TITM
स्वारोह
नई चेतना लाई है।
28
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
1500
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org