________________
गणि श्री मणिविजय जी
गुजरात देश में वीरमगांव के पास भोयणी नामक गांव था, इसके नैऋत्य कोण में अघार नामक एक गांव था। इस गांव में श्रीमाल ज्ञातीय सेठ जीवनलाल भाई रहते थे। आपकी गृहणी का नाम गुलाबदेवी था।
दोनों पति-पत्नी दृढ़ जैन-धर्मानुयायी थे। सदा देव-गुरु की भक्ति में तत्पर रहते थे। इनके घर वि.सं. 1952 (ई.सं. 1785) भादों मास में एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ। इस बालक का नाम मोतीचन्द रखा। इसका एक बड़ा भाई भी था, जिसका नाम रूपचन्द था और दो छोटे भाई भी थे, उनके नाम नानकचन्द और पानाचन्द थे। यह सारा परिवार व्यापार धन्धे के लिये खेड़ा जिले के पेटली गांव में जाकर बस गया था।
एक बार इस गांव में पन्यास श्री कीर्तिविजय जी पधारे। जीवनलाल भाई अपने परिवार के साथ मुनिराज के दर्शन करने के लिये उपाश्रय में आये। गुरु महाराज का व्याख्यान सुनकर जब सब लोग अपने-अपने घरों को चले गये, तब मोतीचन्द भाई गुरु महाराज के चरणों के निकट जा बैठा। नतमस्तक होकर दीक्षा लेने की भावना कही।
जब जीवनलाल भाई परिवार के साथ अपने गांव जाने को तैयार हुए, तब गुरु महाराज ने भाई से कहा कि “सेठ जी ! आपके बेटे मोतीचन्द की दीक्षा लेने की भावना है।" जीवनलाल भाई बिना कुछ उत्तर दिये अनसुनी सी कर के परिवार के साथ अपने गांव को लौट गये। मोतीचन्द को भी अपने साथ में लेते गये।
एक बार अहमदाबाद का संघ राधनपुर यात्रा करने के लिये आया। संघ के साथ पन्यास कीर्तिविजय जी भी पधारे। समाचार पाते ही मोतीचन्द भाई माता-पिता की आज्ञा लेकर राधनपुर आ पहुँचा और पन्यास जी के पास रहकर विद्याभ्यास शुरू कर दिया। विहार में भी गुरुदेव के साथ ही रहता। तारंगा, आबू, पिंडवाड़ा, सिरोही, नादिया, राणकपुर, सादड़ी, घाणेराव आदि तीर्थों की यात्रा कर के राजस्थान के पाली नगर में आ पहुँचे। पाली के श्रावकों को जब यह पता लगा कि मोतीचन्द भाई वैरागी है और वह पन्यास जी के पास दीक्षा लेना चाहता है।
तब यहां के श्रीसंघ ने गुरुदेव से सविनय प्रार्थना की कि यह दीक्षा हमारे नगर में ही होनी चाहिये। गुरुदेव ने स्वीकृति दे दी। अब दीक्षा की तैयारियां होने लगीं। अट्ठाई महोत्सव शुरू हो गया। वि.सं. 1977 (ई.सं. 1920) को 25 वर्ष की आयु में मोतीचन्द भाई दीक्षित हुए। आपका नाम मणिविजय जी रखा गया और तपस्वी श्री कस्तूरविजय जी गणि के शिष्य हुए।
मुनि श्री मणिविजय जी ने क्रमशः साधु प्रतिक्रमण, पडिलेहण आदि की आवश्यक क्रियाओं का विधि पूर्वक अभ्यास किया। दशवैकालिक, आचारांग आदि सूत्रों का अध्ययन किया। दिन-रात ज्ञान-ध्यान में रहने लगे। गुरु शिष्य दोनों ज्ञान-ध्यान, तपस्या में तल्लीन रहने लगे। पन्यास कीर्तिविजय की आज्ञा से दोनों गुरु-शिष्य ने वि.सं. 1877 (ई.सं. 1820) का चौमासा मेड़ता में किया।
वि.सं. 1878 (ई.सं. 1821) का चौमासा राधनपुर में, वि.सं. 1872 (ई.सं. 1922) का चौमासा अहमदाबाद में किया। मुनि श्री मणिविजय जी एकासना, ठाम चउविहार, उपवास आदि तपस्याएँ करने लगे और आपके गुरु मुनि कस्तूरविजय जी वर्धमान तप की ओली करने लगे। इस वर्ष मुनि गणिविजय जी ने एक साथ 16 उपवास किये। वि.सं. 1880-1881 (ई.सं. 1823-1824) के दो चौमासे भी अहमदाबाद में ही किये। लोहार की पोल के उपाश्रय में ये तीनों चौमासे 12 साधुओं ने साथ में किये, उनके नाम ये थे
1. पं. श्री कीर्तिविजय जी, 2. मुनि श्री लक्ष्मीविजय जी, 3. मुनि श्री नीतिविजय जी, 4. गणि श्री कस्तूरविजय जी, 5. मुनि श्री चतुरविजय जी, 6. मुनि श्री लाभसागर जी, 7. मुनि श्री मणिविजय जी, 8. मुनि श्री मेघविजय जी, 9. मुनि श्री मोतीविजय जी, 10. मुनि श्री मनोहरविजय जी, 11. मुनि श्री वृद्धिविजय जी, 12. मुनि श्री उद्योतविजय जी।
आपने वि.सं. 1882 (ई.सं. 1825) का चौमासा गुरु जी के साथ पालीताना में किया। पन्यास कीर्तिविजय जी ने वृद्धावस्था के कारण चौमासा अहमदाबाद में ही किया। 1883 अहमदाबाद, 1884 खंभात, 1885 अहमदाबाद, 1886 राधनपुर, 1887-1888 अजमेर, 1889 राधनपुर, 1890 बनारस चौमासा करके सम्मेतशिखर की यात्रा की। 1891 किशनगढ़, 1892 पोकन-फलोधी, 1893 जामनगर, 1894 अहमदाबाद, 1895 वीर कच्छ, 1896 काजी, 1897 पालीताना, 1898 अज्ञात, 1899 पीरनगर, (पीरमवेट) यह नगर समुद्र में चला गया है। यहाँ की जिनप्रतिमाएं घोघा में हैं। 1900 लींबड़ी, 1901 बीकानेर, 1902 विशालपुर, 1903 में आपके गुरु कीर्ति विजय जी का बड़ौदा में स्वर्गवास हो गया। कई वर्षों से आप अकेले ही विहार करते थे। आपके गुरु जी अस्वस्थ रहने के कारण बड़ौदा में ही रहे।
22
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
4607
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org