________________
संवेगी दीक्षाधारी साधु की समाचारी चरण सत्तरी-करण सत्तरी
दीक्षा धारण करने के पश्चात् जैन मुनि पंच महाव्रतों का दृढ़ता से पालन करते हैं और इसी के साथ-साथ प्रतिदिन की दिनचर्या में चरण सत्तरी और करण सत्तरी अनुसार आचरण करते हैं।
चरण सत्तरी नित्य के आचरण को चरण कहते हैं साधु निम्न बातें सदा आचरण में लाते हैं इसके सत्तर भेद हैं जो निम्न प्रकार हैं : 5. महाव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। 10. यतिधर्म-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य। (इसे उत्तमधर्म भी कहते हैं।) 17. संयम-पाँच इन्द्रियों का निग्रह, पाँच अव्रतों का त्याग, चार कषायों का जय और मन-वचन-काय की विरति।
10. वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष (शिक्षण-प्राप्ति का उम्मीदवार-नवदीक्षित), ग्लान (रोगी), गण (एक साथ पढ़ने वाले भिन्न भिन्न आचार्यों के शिष्यों का समूह), कुल (एक ही दीक्षाचार्य का शिष्य-परिवार) संघ, साधु, समनोज्ञ (समानशील)। (इन दस तरह के सेव्यों की सेवा करना)।
9. ब्रह्मचर्य-गुप्ति- 1. उस स्थान में न रहना जहाँ स्त्री, पशु या नपुंसक हों। 2. स्त्री के साथ रागभाव से बातचीत न करना। 3. जिस आसन पर स्त्री बैठी हो उस पर पुरुष और पुरुष बैठा हो उस पर स्त्री दो घड़ी तक न बैठे। 4. रागभाव से पुरुष स्त्री के और स्त्री पुरुष के अंगोपांग न देखें। 5. जहाँ स्त्री-पुरुष सोते हों या कामभोग की बातें करते हों और उसके बीच में एक ही दीवार हो तो साधु वहाँ न ठहरे। 6. पहले भोगे हुए भोगों को याद न करे। 7. पुष्टिकारक भोजन न करे।8. नीरस आहार भी अधिक न ले। 9. शरीर को न सिंगारे। (इनसे शील की रक्षा होती है।)
3. तीनरत्न-ज्ञान, दर्शन और चारित्र।
12. तप- (6 बाह्य तप-अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस त्याग, विविक्तशैया-संलीनता यानी ऐसे एकान्त स्थान में रहना जहाँ कोई बाधा न हो, कायक्लेश।6. अभ्यंतर तप-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग-अभिमान और ममता का त्याग करना और ध्यान।) 4. कषायजय-क्रोध, मान, माया, लोभ । (कुल 70)
करण सत्तरी प्रयोजन के अनुसार व्यवहार में लाना, हर रोज न लाना, करण सत्तरी कहलाता है। इसके सत्तर भेद हैं।
___42 पिंडविशुद्धि साधु नीचे लिखे गये 32 दोष टालकर आहार-पानी लें।
1. धातृपिंड (गृहस्थ के बालकों को खिलाकर आहार लेना), 2. दूतीपिंड (विदेश के समाचार बता कर गोचरी लेना), 3. निमित्तपिंड (ज्योतिष की बातें बताकर गोचरी लेना), 4. आजीवपिंड (अपनी पहली दशा बताकर गोचरी लेना), 5. वनीपकपिंड (जैनेतर के पास से उसका गुरु बनकर गोचरी लेना), 6. चिकित्सा पिंड (चिकित्सा करके गोचरी लेना), 7. क्रोधपिंड (डराकर गोचरी लेना), 8. मानपिंड (अपने को उच्च जाति या कुल का बताकर गोचरी लेना), 9. मायापिंड (वेष बदलकर गोचरी लेना), 10. लोभपिंड (जहाँ स्वादिष्ट भोजन मिलता हो वहाँ बार-बार गोचरी को जाना), 11. पूर्वस्तवपिंड (पुराने सम्बन्ध का परिचय देकर गोचरी लेना), 12. संस्तवपिंड (सम्बन्धी के गुण बखानकर गोचरी लेना), 13. विद्यापिंड (बच्चे पढ़ाकर गोचरी लेना), 14. मन्त्रपिंड (यन्त्र-मन्त्र बताकर गोचरी लेना), 15. चूर्णयोगपिंड (वासक्षेप इत्यादि देकर गोचरी लेना), 16. मूल-कर्मपिंड (गर्भ रहने के उपाय बताकर गोचरी लेना) । (यह सोलह तरह के दोष साधु को अपने कारण से ही लगते हैं) 17. साधु के लिए बना आहार लेना, 18. औद्देशिक (अमुक मुनि के लिए बना आहार लेना), 19. पूतिकर्म (सदोष अन्न में मिला निर्दोष अन्न लेना), 20. मिश्र आहार (साधु तथा गृहस्थ के लिए बना आहार लेना),
230
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका FOTIVete Personal use only
4501
Jain Education International
www.jainelibrary.org