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________________ अहिंसा परमो धर्मः जैनानां पारमार्थिकः । स्वामिना महावीरेण निर्दिष्टः लोक तारणे ।। 1। जैन दर्शन अभिज्ञानम् संसारार्णव पाराय कैवल्य पथावाप्तये । प्रसारितो जैनधर्मः विश्वमानव क्षेमदः ।। 2 ।। कषायैराक्रान्तः जीवात्मा शक्ति सामर्थ्यधारकः । कृत्स्नकर्म क्षयो मोक्षः जैनानां शास्त्रसंमतः ।। 3 ।। पुद्गलेनाविष्टः जीवः स्वस्वरूपं विस्मरति । तदेव कारणं बन्धः तस्माद् मुक्ति श्रेयः प्रदा ।। 4 ।। सम्यग् ज्ञानादि त्रिरत्नैः अवरोधो निवार्यते। आवरण भंगः मोक्षः सा सदा कैवल्य स्थितिः ।। 5 ।। मिथ्यादृष्टि परिहारः सम्यग् दर्शनमुच्यते । यथार्थरूपं परिगृह्य अविद्या कारणं त्यजेत् ।। 6 ।। सम्यग् ज्ञानेन वर्धते श्रद्धा भावसमुच्चयः । मननाद् धर्म संसिद्धि सा सम्यग् ज्ञान भावना ।। 7 ॥ 224 अहितकर्मणां त्यागः सम्यक् चरित्रमुच्यते । परोपकरणं नित्यम् धर्माचरणमेव वा ।। 8 ।। पर्याय पर पर्यायौ जैन धर्मस्य संगतौ । स्वपर्यायः भावात्मकः परपर्यायो ऽभावात्मकः ।। 9 ॥ चेतनद्रव्यः जीवात्मा जैनागमेषु वर्णितः । जीवः स्वयं प्रकाशश्च अन्यानपि प्रकाशते ।। 10 ।। अनेकान्तवादः स्याद्वादस्तथा स्याद्वादः सापेक्षवादः । स्याद्वादो मुख्य सिद्धान्तः सच सप्तविधः स्मृतः ।। 11 । Jain Education intemational शंकरदत्त शास्त्री साहित्याचार्यः लुधियाना वास्तव्यः हिन्दी अनुवाद : सूरज कांत शर्मा एम.ए. (हिन्दी व संस्कृत ) बी. एड. लुधियाना। अहिंसा एक मात्र श्रेष्ठ धर्म है जोकि जैन मताबलम्बियों का पारमार्थिक तत्त्व है। श्री महावीर स्वामी जी ने लोक कल्याण के निमित्त अहिंसा का उपदेश दिया है ।। 1 ।। संसार रूपी समुद्र से पार जाने के लिए और कैवल्य (मोक्ष) को पाने के लिए जैन धर्म का प्रसार किया जोकि सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी है ।। 2 ।। * अपार शक्ति सम्पन्न जीवात्मा कषायों के कारण पुद्गल से आक्रान्त हो जाने पर बन्धन में पड़ जाता है। अतः जीव का पुद्गल से मुक्त होना या सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाना ही जैन धर्म में मोक्ष है || 3 | *** पुद्गल से घिरा हुआ जीव अपने वास्तविक रूप को भूल जाता है। यही तो बन्धन का कारण है। अतः इसके लिए मुक्ति ही कल्याणकारी है ।। 4 ।। **** सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र इन तीन रत्नों से (साधनों से) अवरोध हट जाता है (तिरोहित हो जाता है) यही तो शाश्वत कैवल्य है ।। 5 ।। * अज्ञान आदि कषायों के कारण जो मिथ्या दृष्टि बन गई है उसको त्यागना और सत्य शाश्वत दृष्टि को अपनाना ही तो सम्यग् दर्शन है। अतः जिन कषायों से मिथ्या दृष्टि बन गई है उन का परित्याग करना चाहिए ।। 6 ।। ****** सम्यग् ज्ञान को अपनाने से साधक के मन में श्रद्धा भाव बनता रहता है। अनेक बार मनन करने से धर्मलाभ होता रहता है यही तो सम्यग् ज्ञान है ।। 7 ।। ******* निन्दित कर्मों का त्याग ही सम्यक् चारित्र कहा जाता है। सदा दूसरों की भलाई करना और धर्म का आचरण सम्यक् चारित्र है ।। 8 ।। जैन दर्शन के अनुसार जीव के पर्याय (परिणाम) स्व-पर भेद से दो प्रकार हैं: स्वपर्याय भावात्मक-सत्ता रूप है और पर पर्याय-असत् रूप हैं ।। 9 ॥ जैन शास्त्रों में (आगमों में) आत्मा को चेतन द्रव्य माना है। वह स्वयं ज्योति होता है और अन्य पार्थिव द्रव्यों को भी प्रकाशित करता है।।10।। ***** जैन दर्शन में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का वर्णन है। स्याद्वाद पर विशेष ध्यान दिया गया है और वह सात प्रकार का है ।। 11 ।। विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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