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नाम- गोत्र-भव आदि का बंधन करती है। चारित्रहीनता किसी भी तरह की, व्यसनादि, ये आत्मा के भव भ्रमण को बढ़ाते हैं। इसलिए बाल युवा वर्ग के अन्दर इन संस्कारों का बीजारोपण करने के लिए घर के अन्य सदस्यों को भी धार्मिक व संस्कारी बनना होगा। बाल व युवा वर्ग घर-समाज में ही पलता है। मां-बाप, अभिभावकगण को स्वयं इन धार्मिक संस्कारों से युक्त होना चाहिए। तभी तो बालक व युवा भी उन संस्कारों में पल सकेंगे। यही बात वल्लभ प्रवचन में गुरुदेव ने बार-बार चेताई है।
आत्मोद्धार की कुंजी : आत्मा से आत्मा का उद्धार करने के लिए एक सुगम व सुलभ उपाय गुरुदेव बताते हैं-"आत्मा किसी भी प्रवृत्ति को करते समय सर्वव्यापक परमात्मा को ना छोड़ें - उसे अपने चित्त के सामने रखें। जैसे पतिव्रता नारी गृहस्थाश्रम के सभी कार्य करती है परंतु अपने पति की तरफ अपने कर्तव्यों का ध्यान हर पल रखती है। इसी तरह जगत के सभी प्राणी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमात्मा को ना भूलें। परमात्मा को ना भूलना ही अपनी शुद्ध आत्मा को ना भूलने की तरफ इंगित करते रहेंगे। परमात्मस्मृति ही आत्म-स्मृति है। जो परमात्मा के आज्ञा के बाहर के कार्य है कम से कम उन्हें स्मरण रखकर कार्य करें। यदि आपकी स्मृति में से आज्ञाबाह्य कार्य भूलते हैं तो फौरन परमात्मा को याद कर उनकी शरण में आ जाओ। परमात्मा (अरिहंत व सिद्ध) आपको सचेत कर देंगे।"
3. रत्नत्रय की व्याख्या चारित्र के प्रति सावधान: गुरुदेव ने फरमाया है कि जिस
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प्रकार हमारे जीवन में हृदय बुद्धि तथा शरीर तीनों की अपने-अपने स्थान पर अनिवार्यता है, उसी प्रकार आत्मसाधन अथवा धार्मिक संस्कारों के बीजारोपण में इस रत्नत्रय की आवश्यकता है। हृदय के द्वारा साध्य सम्यग्दर्शन, बुद्धि के द्वारा सम्यग्ज्ञान एवं शरीर के सभी अंगोपांगों द्वारा सम्यग्चारित्र की नितान्त आवश्यकता है। एक के अभाव में दूसरा काम नहीं करेगा। तीनों का ज़िन्दगी में होना तथा ठीक रहना जरूरी है। इन तीन शरीरांगों में से एक तकलीफ में आते ही सभी गड़बड़ा जाते हैं उसी प्रकार इन रत्नत्रय में से एक भी खराब हो जाए, तो बाकी दोनों भी गड़बड़ा जाते हैं। इसलिए इन तीनों का जीवन में धार्मिक संस्कारों के लिए होना आवश्यक है । साधना अथवा धार्मिक जीवन में केवल चारित्र हो - ज्ञान दर्शन का अभाव हो तो वहम-अंधविश्वास, अंधे आचरण का योग बन जाता है। ज्ञान के अभाव में धार्मिक प्राणी कल्याण / अकल्याण का ज्ञान नहीं होने के कारण बिना श्रद्धा व उत्साह से चलेगा, तो यथेष्ट फल की प्राप्ति नहीं होगी तथा वैसे ही दर्शन के अभाव में उसके अनुसार आचरण नहीं कर पाएगा। इसलिए चारित्र पालने में भी तीनों के संगम की आवश्यकता रहेगी। 4. धर्म-अधर्म की पहचान पत्थर जब खान से निकलता है-बेडौल, खुरदरा व भद्दा होता है। उस स्थिति में पत्थर का उपयोग नहीं हो पाएगा। परंतु यही पत्थर किसी शिल्पकार के हाथ में आने के बाद अपनी कला से सुन्दर आकृति देकर बहुमूल्य बना देता है यही स्थिति आज के बाल व युवा वर्ग में धार्मिक संस्कारों की है। आपके घर में बालक पैदा
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विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका
होकर आयुष्य के अनुसार बड़ा हो रहा है आप मां-बाप या अभिभावक उसके शिल्पकार हैं आप अपनी धार्मिक शिल्पकला से उस बालक को कलात्मक धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत करें धर्म-अधर्म का अन्तर समझाएं। परंतु अधिकांश लोग धर्मकला से अनभिज्ञ, भ्रान्त, धर्मकला में प्रमादी व निरपेक्ष होते हैं वे धर्म को स्वयं अपनाने में शर्म महसूस करते हैं- धर्म का मजाक उड़ाते हैं। आदि । ऐसे लोगों को बोध देने के लिए धर्म के महान कलाकार भ. महावीर फरमाते हैं:
"असंखय जीवियं मा पमायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं ।।"
'तेरा जीवन असंस्कृत है, कला से संस्कारी बना हुआ नहीं है इसलिए प्रमाद मत कर। जब बुढ़ापा आ घेरेगा तब ऐसे असंस्कृत व्यक्ति की जीवन की रक्षा करने वाला कोई नहीं होगा जबकि सुसंस्कृत व्यक्ति धर्मकला का अभ्यासी होने से बुढ़ापे को भी सुखमय बना लेगा, मृत्यु भी उसे सुखकर प्रतीत होगी।'
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इसलिए धर्म-अधर्म में अन्तर जानकर धर्म को कलामय संस्कार देकर बाल युवा वर्ग में एक धार्मिक शिल्पकार की तरह उनमें कलात्मक धार्मिक संस्कार भरें। 5. देव-दुर्लभ मानवता की पहचान अंतरात्मा से गुरुदेव ने यहां पर भी यही फरमाया है “आप जानते हैं कि दुनियां में जो चीज मुश्किल से मिलती है वह थोड़ी होती है। और थोड़ी होने के कारण महंगी भी होती है ? वह फिर भी कोई ना कोई धन से खरीदने की योग्यता रखते हुए खरीदता है। सर्वज्ञ भगवान महावीर ने पावापुरी में अपने अंतिम प्रवचनों में अपने अनुभवों का निचोड़ जगत् के सामने
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