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तीसरा महाव्रत : सब प्रकार के दान से निवृत होना अर्थात बिना मांगे नहीं लेना। ग्राम नगर या जंगल में से थोड़े या बहुत मुल्य की वस्तु छोटी या बड़ी मनुष्य पशु पक्षी आदि रुचित सजीव वस्तु, वस्त्र, पात्र, आहार स्थान आदि निर्जीव सचित वस्तु स्वामी के द्वारा दिये बिना तीन करण तीन योग से ग्रहण नहीं करना चाहिए। यही अदत्ता दान विरमण व्रत कहलाता है। चौथा महाव्रत : तीन करण एवं तीन योग से मैथुन सेवन का त्याग इस प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना ब्रह्मचर्य महावृत कहलाता है। स्त्री के हाव, भाव, विलास, और श्रृंगार की कथा न करना, स्त्री के गुप्त अंगों पाँगों को विकार दृष्टि से न देखना, ग्रहस्थाश्रम में भोगे हुए काम भोगों को याद नहीं करना, मर्यादा से अधिक तथा कामोत्तेजक तक सरस आहार सदैव भोगना, जिस मकान में स्त्री, पशु या पंडक (नपुंसक) रहते हों उसमें न रहना, मैथुन का सेवन घोर अधर्म का मूल, नौ लाख संज्ञी मनुष्यों और असंख्यात असंज्ञी जीवों को घात रुप में महा दोष का स्थान है, इसके सेवन से पाँचों महाव्रतों का भंग हो जाता है। ऐसा समझ कर निर्गन्ध मुनि मैथुन का सर्वथा त्याग कर देते हैं ।
पाँचवां महाव्रत सब परिग्रह का तीन करण तीन योग में त्याग करना पाँचवा परिग्रह विरमण व्रत कहलाता है।
5) पंच विहायार पालण आचारों का पालन करने में समर्थ जैसे :
1. ज्ञानाचार का पालन करें।
2. दर्शनाचार का पालन करें।
3. चरित्राचार का पालन करें।
4. तपाचार का पालन करें।
5. वीर्यचार का पालन करें।
समत्थो : पाँच प्रकार के
पंच विहायार पालण
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ज्ञानाचार का पालन ज्ञान आराधनीय आचारणीय वस्तु है ज्ञान की स्वयं आराधना करने वाले ज्ञान सम्पन्न आचार्य होते हैं। वे दूसरों को भी ज्ञानी बनाने का प्रयास करते हैं तीर्थंकरों द्वारा उपविष्ट और गणधरों द्वारा रचित द्वादशांगी रूप शास्त्रों को आचार्य महाराज स्वयं पठन करते हैं और दूसरों को भी पढ़ाते हैं । दर्शानाचार का पालन दर्शन दो प्रकार का होता सत्यदर्शन या सम्यक दर्शन दूसरा मिथ्या दर्शन
जिस पदार्थ का जैसा स्वरुप है उस पर उसी रुप से श्रद्धा
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करना सम्यक् दर्शन है। दूसरा मिथ्या दर्शन सत्य को मिथ्या देखना, मिथ्या रुपी प्रतीती या श्रद्धा करना मिथ्या दर्शन है। जैसे:पीलिया रोग के रोगी को श्वेत पदार्थ पीला ही दिखाई देता है। आचार्य जी में मिथया दर्शन नहीं होता वे सम्पक दर्शन से सम्पन्न होते हैं और दूसरों को भी सम्पन्न बनाते हैं। चरित्राचार क्रोध आदि चारों कषायों से अथवा नरकादि चारों गतियों से आत्मा को बचा कर मोक्ष गति में पहुँचावे वह चरित्राचार कहलाता है। आचार्य चरित्र के दोषों से यत्न पूर्वक बच कर चरित्राचार का पालन पालन करते हैं।
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तपाचार : तप 12 प्रकार के होते हैं 6 बाहय तप 6 अभ्यंतर तप बाहयतप अनसन, ऊनोचरी, भिक्षाचार्य, रसपरित्याग, काय, क्लेश और प्रति सालीनता इस प्रकार 6 तप हुए एवं प्रायश्चित, विनय वैयाव्रत्य (वैयावच्च), स्वाध्याय, धयान और कायोत्सर्ग यह 6 अभ्यंतर तप है।
आचार्य महाराज इस प्रकार के तप को करते हैं और करवाते हैं। वीर्यचार : आचार्य जी पाँचों व्यवहारों के ज्ञाता होते है-आगम व्यवहार, सूत्र व्यवहार, आज्ञा व्यवहार, धारणा व्यवहार और जीत व्यवहार आचार्य इसी के अनुसार प्रव्रत्ति करते हैं, कराते हैं और बोध देकर भव्य जीवों को धर्म के प्रति अग्रसर करते हैं, मोह निद्रा में मस्त मनुष्यों को सावधान और जाग्रत करते हैं तथा संघों को यथा योग्य धर्म सहाय देकर और दूसरों से दिला कर धर्म और संघ का अभ्युदय करते है धर्म कार्य में स्वयं प्रवत्त होते हैं तथा दूसरो को करते हैं। यही वीर्याचार कहलाता है।
6 ) पंच समिओं : पाँच प्रकार की समित का पालन यथा:
1) चलने में सावधानी रखे।
2) बोलने में सावधानी रखें।
3) आहार पानी लेने में सावधानी रखें।
4. वस्त्र, पात्र लेने, रखने में सावधानी रखें।
5) मल, मूत्र आदि परिष्ठापन में सावधानी रखें।
7) ति-गुत्तो : तीन गुणों से युक्त हो यथा:1. मन को पूर्णतयावश में रखें।
2. वचन को पूर्णतया वश में रखें। 3. काया को पूर्णतया वस में रखें।
गुरुवर विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म. में यह 36 गुण विद्यमान थे। इन्हीं गुणों के कारण चतुर्विध संघ ने उन्हें आचार्य पदवी से विभूषित किया था।
विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका
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