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आचार्य के 36 गुणों से यात
36 गुणों से सम्पन्न जैनाचार्य श्री मद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी म
सभी प्राणी सुख चाहते हैं। सुख दो प्रकार से प्राप्त होता है। पहला भौतिक साधनों के द्वारा दूसरा आध्यात्मिक साधनों द्वारा, भौतिक साधनों के द्वारा प्राप्त हुआ सुख पराधीन होता है, जब तक वह वस्तु रहती है, तब तक वह सुख रहता है। वस्तु के चले जाने पर सुख भी चला जाता है। इसलिए इसे सुखाभाष कहते हैं। क्योंकि यह सुख दूसरी वस्तु के अधीन है। इसलिए इसे पराधीन कहा गया है।
दूसरे प्रकार का सुख है, आध्यात्मिक सुख अर्थात आत्मा की उच्चतम अवस्था द्वारा प्राप्त सुख, यह सुख स्वाधीन होता है। अपनी ही आत्मा के अधीन होता है। यह अपनी ही आत्मा का गुण है। तीर्थंकर परमात्मा इसी सुख को प्राप्त करने का उपदेश देते हैं। इस सुख के सामने सारे ब्रह्मण्ड के सुख क्षीण एवं तुच्छ पड़ जाते हैं। इस सुख में दुख का मिश्रण नहीं होता नही इसका परिणाम दुखमय होता है। ऐसा एकांत और नित्य सुख ही वास्तव में सुख कहलाता है। ऐसा सुख प्राप्त कराने वाले पाँच पदार्थ हैं (1) ज्ञान (2) दर्शन (3) चरित्र (4) तप (5) वीर्य । यह पांच पंचाकार कहलाते हैं। पंचाकार का स्वयं पालन करने वाले तथा दूसरों से पालन करवाने वाले मुनिराज आचार्य कहलाते हैं। लेकिन सच्चा आचार्य वही हो सकता है जिसमें निम्नलिखित 36 गुण हों: आचार्य के 36 गुण: पंचिंदिय-संवरणो, तह नव विह-बंभचेर-गुत्ति-धरो। चउविह-कसाय-मुक्को, इअअट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो॥ पंच-महव्वय जुत्तो, पंचबिहायार पालण-समत्थो। पंच-समिओ ति-गुत्तो, छत्तीसगुणो गुरु मज्झ॥ अर्थात पाँच इन्द्रियों को वश में रखने वाले, नव विध-ब्रह्मचर्य की गुप्ति को धारण करने वाले, क्रोधादि चार प्रकार के कषायों से मुक्त, इस प्रकार अठारह गुणों से युक्त, पांच महाव्रतों से युक्त, पाँच प्रकार के आचारों के पालन करने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त इस प्रकार छत्तीस गुणों से युक्त आचार्य कहलाते हैं।
(1) पंचिंदिय संवरणो : इन्द्रियाँ पाँच हैं आचार्य भगवन् स्पर्शनेन्द्रिय (चर्म) रसनेन्द्रिय (जिव्हा), घ्राणेद्रिय (नासिका), चक्षुरिन्द्रिय (नेत्र),और श्रोत्रेन्द्रिय (कर्ण) सदगुरु इन पाँच इन्द्रियों को वश में रखने वाले होते हैं। (1) स्पर्शनेन्द्रिय : स्पर्शनेन्द्रिय के वश में होकर हाथी खाड़े में पड़कर वध-वधन मृत्यु आदि के दुःख पाता है। स्पर्श की प्राप्ति होने पर राग द्वेष उत्पन्न नहीं होना चाहिए। (2) रसनेन्द्रिय : रसना इन्द्रिय में आसक्त होकर मछली अकाल मृत्यु को प्राप्त होती है। एसा समझकर राग द्वेष उत्पन्न करने वाले रसों के आस्वादन से बचना चाहिए। (3) घ्राणेन्द्रिय : घ्राणेन्द्रिय के विषय में आसक्त भ्रमर फूल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। तो मनुष्य का क्या हाल होगा? इस प्रकार राग द्वेष उत्पन्न करने वाले गंध को सूंघने से बचना चाहिए। (2) चक्षुरिन्द्रिय : चक्षु-इन्द्रिय के विषय में आसक्त पतंग दीपक पर गिर कर मर जाता है। तो मनुष्य का क्या हाल होगा? इस प्रकार राग द्वेष उत्पन्न करने वाले रुप का अवलोकन नहीं करना चाहिए
और यदि कदाचित दृष्टिगोचर हो जाए तो राग द्वेष उत्पन्न नहीं होना चाहिए। (5) श्रोत्रेन्द्रिय : जिसके द्वारा शब्द सुना जाता है उसे श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय विषय के आसत्ति के कारण मृग अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। सर्प को बंधन से फँसना पड़ता है। जो श्रोत्रेन्द्रिय को अपने काबू में रखता वह क्रमश: मोक्ष प्राप्त करता है।
(2) नव विह-बंभचेर-गुत्ति धरो : नौ प्रकार के नियम पूर्वक ब्रह्मचर्य का शुद्ध पालन करने वाले जैसे: 1) स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित स्थान में रहें। 2) स्त्री सम्बन्धी बातें न करें। 3) स्त्री जिस आसन पर बैठी हो, उस आसन पर दो घडी तक न बैठे। 4) स्त्रियों के अंगों पाँगों को आसक्ति पूर्वक न देखें। 5) दीवार की आड़ में स्त्री पुरुष जोड़ा रहता हो ऐसे स्थान पर न
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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