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आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज
बसन्ती लाल लसोड, नीमच
पंजाब केसरी, कलिकाल कल्पतरु, अज्ञान तिमिर तरणी, युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज वर्तमान युग के महान् दार्शनिक संतों में से एक हैं, जिनका नाम गौरव और आदर के साथ लिया जाता है। जिनकी तपस्विता, मनस्विता, यशस्विता मानवता आदि गुण जिनके व्यक्तित्व, कृतित्व के घुले मिले तत्व थे, ऐसे इन महान् आचार्य का पूरा जीवन पारदर्शी व्यक्तित्व और उम्दा चारित्र से अभिभूत है, जो हर किसी को आकर्षित करता है, अपनत्व के घेरे में बांध लेता है। वे मनीषा के शिखर पुरुष थे, महान् चिन्तक और दार्शनिक थे वे श्रुतधर, बहुश्रुत थे। ज्ञान के अपूर्व भण्डार थे। उनका जीवन बेजोड़ था। साधारण से दिखने वाले इस असाधारण सन्त की वृत्तियों को समझना आसान नहीं था। उन्होंने अपने ज्ञान तथा अद्भुत प्रवचन शैली के माध्यम से जनता जनार्दन के साथ सीधा सम्पर्क स्थापित किया था। वे अपने को किसी जाति विशेष का नहीं मानते थे यही कारण था कि जैनों से भी अधिक जैनेत्तर समाज
उन से प्रभावित था। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आदि प्रत्येक जाति, सम्प्रदाय वर्ग उनके चरणों में श्रद्धावनत् होता था, वे विश्व शांति के अभिलाषी राष्ट्रप्रेमी, श्रीसंघों के कुशल संचालक थे। उन्होंने साधु-साध्वी समाज को उत्कर्ष, साधर्मिक भाई-बहनों को सुदृढ़ आधार
दिया। यही कहा जायेगा कि कुछ “गुरुदेव उस समय गुजरांवाला में थे जो पाकिस्तान के भाग में था। वहां ।
विभूतियां ऐसी भी जन्म लेती हैं, जो
अपने समय का गुरुदेव ने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक गुजरांवाला और उसके आस-पास के नगरों। इतिहास बनाती हैं व
अपने लोकोपकारी में जैन भाई-बहन हैं जब तक वे सुरक्षित नहीं पहुंच जाये मैं यहां से हिलूंगा ही नहीं। कार्यों से स्वयं
इतिहास बन जाती हैं, वैसे ही वे थे।
भारत सरकार ने बहुत अनुनय किया कि यहां आपकी जान को जबरदस्त खतरा हैजैसा कि
पर जब तक गुजरांवाला और आस-पास नगरों के जैन श्वेताम्बर भाई सुरक्षित नहीं ऊपर लिखा है उनके प्रवचन बहुत प्रभावक पहुंचे, वे वहीं रहे और बाद में उनको व सभी को सुरक्षित पहुंचाया गया।"
होते थे। वे कहा करते थे कि मानव जीवन
साधारण नहीं है, उसमें चेतना का
उत्कर्ष एवं विकास की अपूर्व संभावना सन्निहित है। दिव्य जीवन दबा पड़ा है, वह चैतन्य है। जागृत जीवन सचेतन एवं सजीव है। हमें उसका सम्मान करना चाहिए। जिस प्रकार हमें सम्मान, आदर तथा भावनात्मक बोध होता है उसी प्रकार सभी में यही भाव विद्यमान है। जैसे सांस लेने का अधिकार हमें है, वैसा ही अधिकार औरों को भी है, हमने अपना आदर सम्मान तो स्वीकारा, पर औरों के लिए अमान्य कर दिया एवं नकार दिया, यह उचित नहीं है।
उन्होंने जो प्रवचन दिये, वे अत्यन्त गम्भीर एवं तत्व से भरे होते थे। वे कहते थे, “संसार में सभी जीवों की प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है, वे उसी के अनुसार वस्तु तत्व को ग्रहण करते हैं इसलिए कभी-कभी उनका ग्रहण किया हुआ सत्य भी असत्य हो जाता है और असत्य सत्य बन जाता है। जैसे एक ही तालाब से पिया पानी गाय में दूध हो जाता है और सर्प में विष बन जाता है, इसी प्रकार विचारशील सम्यक् पुरुष तो असत आंशिक सत्य से विद्यमान संदेश को अपनाता हुआ उसे सत्य ठहरा लेता है और मिथ्या दृष्टि विचार से ग्रसित मानस इसे असत्य प्रमाणित करता है। तात्पर्य यह है कि सम्यक् दृष्टि जीव मिथ्याश्रुत को अपने परिणामों के अनुसार ग्रहण कर सम्यक्श्रुत बना लेता है
और मिथ्यादृष्टि जीव अपने परिणामों के अनुसार सम्यक्श्रुत को भी मिथ्या बना लेता है अतः अपने परिणाम और दृष्टि सदा पवित्र बनाए रखना, उसी से कल्याण होगा।" उन्होंने अपने प्रवचनों से अवगत कराते हुए कहा कि, “संसार की प्रत्येक वस्तु नाशवान है, यहाँ तक कि
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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