________________
- गरु वल्लभक अनोखी विभूति
कमलेश जैन लिगा
प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो प्राणी इस संसार में जन्म लेता है, वह एक दिन अवश्य इस संसार से विदा हो जाता है। परन्तु कुछ महान आत्माएं ऐसी भी होती हैं, जो मर कर भी अमर रहती हैं। इस संसार से प्रयाण कर जाने के पश्चात् भी उनकी साधना, उनका व्यक्तित्व, उनके गुणों का सौरभ जन मानस को नई प्रेरणा, नई शक्ति एवं प्रति पल आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। ऐसी महान आत्मा, परम श्रद्धेय, परम वन्दनीय जन-जन के हृदय सम्राट, युगवीर, पंजाब केसरी, अज्ञान तिमिर तरणी, कलिकाल कल्पतरु, युगद्रष्टा आचार्य श्री विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज थे।
श्री आत्म वल्लभ समुद्र इन्द्रदिन्न पाट परम्परा पर सुशोभित वर्तमान पट्टधर कोंकण देश दीपक जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नाकर सूरीश्वर जी महाराज जी ने गुरुवर विजय वल्लभ स्वर्गारोहण अर्द्धशताब्दी वर्ष को एक महोत्सव के रूप में मनाने की जैन समाज को प्रेरणा दी। जिसके अन्तर्गत विविध मंगल कार्यक्रम घोषित किये गये जो बड़े हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न होते जा रहे हैं। गुरुदेव ने जानकारी देते हुए फरमाया कि “विजय वल्लभ सूरि जी महान् उच्चकोटि के कवि, गीतकार, साहित्यकार, रचनाकार थे। उनके द्वारा स्तवन, सज्झाए एवं स्तुतियों का संग्रह समाज के लिए अनमोल पूंजी है। विविध प्रकारी पूजाओं का संग्रह प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर करता है। बड़े पुण्योदय से मुझे चरित्र पूजा
एवं वल्लभ काव्य सुधा का अध्ययन करने का
और जनसमुदाय के आगे आकण्ठ होकर भाव विभोर होकर गुरु गुणगान करने का अवसर मिला।" ऐसी प्रभु भक्ति से भरी हुई प.पू. गुरुदेव की रचनाओं को गाना, अपने परम उपकारी गुरुदेव को सच्ची श्रद्धांजली अर्पित करना एवं करवाना, जिसका माध्यम प्रतिस्पर्धा बनाया गया एक अद्वितीय कला है। _ मेरे विचार में या यूँ कहिए कि जो मुझे इन प्रोग्रामों के माध्यम से जन मानस की उत्सुकता मिश्रित जागरूकता देखी, ज्ञान मिला, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उदाहरणतया श्री विजय वल्लभ सूरि जी ने 'श्री ऋषभ जिनस्तवन में बताया कि द्रव्य पूजा का लक्ष्य भगवान की भाव पूजा में लीन होना है। अनादि कर्म मैल को धोने के लिए जलाभिषेक, पाप रज को दूर करने के लिए चन्दन पूजा, काम वासना को दूर करने के लिए कुसुम पूजा, चित उपाधि को जलाने के लिए धूप पूजा, भाव दीपक प्रकट करने के लिए दीप पूजा, अक्षय सुख पाने के लिए अक्षत पूजा, अनाहारी होने के लिए नैवेद्य पूजा तथा मोक्ष फल के लिए फल पूजा का विधान है अर्थात् इस मानव मन को वश में करके प्रभु की अर्चना कीजिए, करूणा जल से प्रभु को स्नान कराइए, शुभ ध्यान के द्वारा केसर चन्दन से उनकी अंगरचना कीजिए, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान के पांच फूल प्रभु जी को चढ़ाइए तथा उनके सम्मुख गुणकीर्तन का धूप कीजिए तभी ब्रह्मधर की शील सुगंध
महकेगी।
इस प्रकार प्रभु भक्ति-प्रभु मिलन का गायन करते हुए यकायक मन भटका और सोचने लगी “क्या मैं इस योग्य हूं"? तभी पार्श्वनाथ जिन स्तवन में भक्त की पुकार अभिव्यक्त हुई। 'हे दीन दयाल ! मुझ पर करूणा दृष्टि कीजिए। संसार सागर में मैं तड़प रहा हूं। इस अथाह सागर के जल में मैं भ्रमवश भटक रहा हूँ। इसमें मगरमच्छ आदि रोग शोक मुझे नित्य घेरे हुए है। इस अनंत दुःख युक्त संसार समुद्र में काम वासनाओं की बड़वानल मुझे जला रही है, चारों कषाय मुझे कुतर रहे हैं। इस सागर के अष्टकर्म रूपी पर्वतों से मैं टकरा-टकरा कर चूर हो गया हूं। तृष्णा की ऊंची-ऊंची तरंगें उठ रही हैं, जो मुझे निरन्तर पटक रही है। पाप रूपी जल भार की बौछारों से अत्यन्त व्याकुल हूं। धर्म रूपी जहाज के द्वारा मैं इस विकट भवसागर को पार करना चाहता हूं, परन्तु आठ मद रूपी चोर इस जहाज को तोड़ रहे हैं। इस विकट संसार सागर में डूबते हुए दीन को बचाओ। केवल आपकी ही शरण मेरा उद्धार कर सकती है। हे कृपानिधान ! मैं डूब रहा हूं, दौड़ कर मुझे बाहर खींच लो।' अंत में प्रभु कृपा हुई। अपने वल्लभ से मिलने पर आत्म लक्ष्मी का अनुपम रूप प्रकट हुआ। प्रिया से प्रिय मिल गई, द्वैत भाव मिट गया। आह्, कितना रस ! कितना भाव ! प्रभु मिलन, प्रभु विरह-त्याग-वैराग्य आदि वल्लभ गुरु जी की अनमोल काव्य रचना, जो गज़ल, कव्वाली, लोक संगीत,
180
विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
1561
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org