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________________ सुवर्णभूमि में कालकाचार्य क्रमेल जई यतिः चरण चरकः खवमाई क्षपणकः। अत्र वृद्धश्राक्कग्रहणं माहेश्वराश्रितानां प्रव्रज्यानामुपलक्षणार्थ। श्राजीविकाहणं च नारायणाश्रितानाम्। तथा च बकासके संहितान्तरे पठ्यते जलण-हर-सुगम केसव सूई बह्मरण णग्ग मग्गेसु । दिक्खाणं गाअन्वा सूराइगगहा कमेण णाहगा।। बलण ज्वलनः सानिक इत्यर्थः। हर ईश्वरभक्तः भट्टारकः सुगम सुगत बौद्ध इत्यर्थः। केसव केसवभक्त भागवत इत्यर्थः । सूई श्रुतिमार्गगतः मीमांसकः । ब्रह्मण्ण ब्रह्मभक्तः वानप्रस्थः। एम्ग नम-क्षपणकःxxxx'' वराहमिहिर ने अपने बृहज्जातक, १५.१ में प्रव्रज्या के विषय में जो विधान दिया है वह उत्पल भट्ट के कथन के अनुसार बालक के मतानुसार वराहमिहिर ने दिया है। उसी बात के स्पष्टीकरण में उत्पलभट्ट वडालक की प्राकृत गाथायें उद्धृत करते हैं। यहाँ वंकालकाचार्य (वङ्कालकाचार्य) ऐसा पाठ होने से इस प्राकृतविधान (गाथायें) के कर्ता के जैन आर्य कालक होने के बारे में विद्वानों में संदेह रहा है। महामहोपाध्याय श्री पां० वा० काणे ने यह अनुमान किया है कि वंकालकाचार्य का कालकाचार्य होना सम्भक्ति है।" हम देखते हैं कि कालकाचार्य और इनके प्रशिष्य सुवर्णभूमि गये थे। सुवर्णभूमि से यहाँ वस्तुतः किस पूर्वी प्रदेश का उल्लेख है यह तो पूरा निश्चित नहीं है किन्तु, विद्वानों का खयाल है कि दक्षिण बर्मा से लेकर मलाया और सुमात्रा के अन्त तक का प्रदेश सुवर्णभूमि बोला जाता था (देखो, डॉ० मोतीचन्द्र कृत, सार्थवाह, नकशा) जिसमें "वंकम्" या वंका की खाड़ी भी आ जाती है। पालेमबेंग के इस्टुअरी केसामने वंका द्वीप है। वंका का जलडमरूमध्य मलाया और जावा के बीच का साधारणपथ है। डॉ. मोतीचन्द्रजी लिखते हैं : बंका की राँगे की खदानें मशहूर थीं। संस्कृत में बँग के माने राँगा होता है और सम्भव है कि इस धातु का नाम उसके उद्गमस्थान पर से पड़ा हो। २ । उत्पल-टीका की हस्तप्रतों का पाठ-'वकालकाचार्य' और 'वकालक-संहिता' उन श्राचार्य का सूचक हो सकता है जो सुवर्णभूमि में गये थे और जिनके प्रशिष्य सागरश्रमण सपरिवार सुवर्णभूमि में (इस में “वका" श्रा जाता है) रहते थे। सम्भव है येही आचार्य कालक के अलावा "वकालक" या "वका-कालक" नाम से भी पिछाने जाते हों। यह भी हो सकता है कि शुद्ध पाठ कालकाचार्य और कालक-संहिता हो किन्तु कालक के वङ्का-गमन की स्मृति में पाठ में अशुद्धि हो गई हो। उत्पलभट्ट का कहना है कि वराहमिहिर ने प्रव्रज्या के विषय में (बृहज्जातक, १५, १) वङ्कालकाचार्य (कालकाचार्य) के मत का अनुसरण किया है। पञ्चकल्पभाष्य और पञ्चकल्पचूर्णि गवाही देते हैं कि कालकाचार्य ने उसी प्रव्रज्या के विषय का श्राजीवकों से सविशेष अध्ययन किया था। अतः उत्पल-टीका के वकालकाचार्य कालकाचार्य हैं ऐसा मानना समुचित है। ईसा की सातवीं शताब्दि अासपास रची हुई पञ्चकल्प-चूर्णि में लिखा है--13 लोगाणुओगे, अजकालगा सकेंतवासिणा भणिया एत्तिय। सो न नानो मुहुत्तो जत्थ १०. बृहज्जातक (वेङ्कटेश प्रेस, बम्बई, सं. १९८०) उत्पलकृत टीका सह, पृ० १५६ ११. देखो, महा. पां. वा. काणे, वराहमिहिर एन्ड उत्पल, जर्नल ऑफ ध बॉम्बे ग्रान्च ऑफ ध आर० ए. एस० १९४८-४६ पृ० २७ से आगे. १२. डॉ. मोतीचन्द्र, सार्थवाह, पृ० १३०-१३१, १३४, १३. श्री आत्मारामजी जैन शानमंदिर, बडौदा, प्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी शास्त्रसङ्ग्रह, हस्तलिखित प्रति नं० १२८४, पत्र २६ से उद्धृत. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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