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________________ ३ तिरकन्युबर समाजमा प्रमर प्रेय सिमाकुरल बहुत कुछ भाग मय हो गया। जैन साहित्य की ही इससे सर्वाधिक हानि हुई। उसके बाद बौद्ध साहित्य का मंदर माता है। तमिल साहित्य के संगम काल का कुरल नामक एक उत्कृष्ट काव्य है जो दक्षिण भारत में तमिल वेद के नाम से प्रसिद्ध है। उसके रचयिता तिरुवल्लुवर नामक एक संत थे। पहले प्रत्येक धर्मवाले इसे अपना धर्मग्रन्थ सिद्ध करने में गौरव मानते थे। परंतु अब अनेक साहित्यिक प्रमाण इस बात के मिले हैं कि इस ग्रंथ के रचयिता जैन सेतही है। नीलकेशी की औका में इसे स्पष्ट रूप से जैन शास्त्र कहा गया है। शिलणधिकारम् और मसिमेखले इन दो ग्रंथों में भी जो दूसरी शती में लिखे गये थे, इसका जैन ग्रंथ रूप से उल्लेख है बवि इन तीनों ग्रंथों के स्वामिलायों में अपनी प्रमाण घुधि के लिए कुरल के यत्र तत्र साल से अधिक पद्य उद्धृत किये है। शिलप्पषिवारम् और मणिमेखले में कुरत की ५५ कविताएँ उजत की गयी हैं। जीवक चिंतामणि में भी कुरल का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त कई जैन प्राचार्यों ने इस पर अपनी टीकाएँ लिखी हैं। कुरल नामक इस अलौकिक मेथ का स्वपिता तिवापर मद्रास के समीप मैलापूर का निवासी था। वहाँ पहले भगवान मेमिनाभ का एक बहुत बड़ा मंदिर था। उसे गिराकर पहत-सी शताब्दियों पहले कपालेश्वर का मंदिर बना दिया गया है। तिरुवल्लुवर का माल्य-माल कैसे बीता इस संबंध में कोई प्रमाण नहीं मिलता। पर उसने शादी अवश्य की थी। उसकी स्त्री साध्वी तथा पतिपरायणा थी। इसलिए उसका वैवाहिक जीवन अत्यंत सुखमय था। पति का शब्द उसके लिए ईश्वर की शाज्ञा के समान था। एक बार जब किसी साधु मे तिरुवल्लुवर के इस सुखी गृहस्थ जीवन के बारे में सुना तर यह उसके पास आकर पूछने लगा-'यदि आप ग्रहस्थाश्रम को अच्छा कर दें तो मैं वैवाहिक बंधन में बंधने के लिए तैयार हूँ।' भला तिरुवल्लुवर इसका हा या ना में कैसे उत्तर देता? यह तो उसे अपने जीवन की अनुभूतियाँ ही बता सकता था। इसलिए उसने उस साधु को अपने जीवन के अनुभव बताने के लिए कुछ दिनों तक अपने यहाँ रोक लिया। वह वैरागी भी वहाँ रह गया। एक दिन तिरुवल्लुवर ने अपनी पत्नी को मुट्ठीभर नाखून और लोहे के टुकड़ों का भात पकाने के लिए कहा। उनकी पत्नी वासुकी ने किसी प्रकार की शंका-कुशंका के बिना उन चीजों को चूल्हे पर चढ़ा दिया और उसने उन्हें पकाने का प्रयास किया। किसी अन्य दिन वह साधु और तिरुवल्लुवर साथ-साथ खाने बैठे थे। वासुकी पास ही कुएँ से पानी खींच रही थी। परसा हुअा भात ठंडा था, फिर भी 'अरी श्रो! देखो तो, भात कितना गर्म है। छूते ही मेरा हाथ जल गया।' इस प्रकार तिरुवल्लुवर चिल्लाया। बेचारी साध्वी पत्नी तिरुवल्लुवर की इस चिल्लाहट को सुन श्राधे में लटकती हुई गागर वैसी ही छोड़ दौड़ती हुई खाकर थाली पर पंखा झलने लगी। एक दिन मध्याह्नकाल में तिरुवल्लुवर अपने कर वे पर कपड़ा बुन रहा था। एकाएक उसने अपनी पत्नी से कहा---'देखो तो बहुत अंधेरा हो गया है, अभी जल्दी दीया जलाकर ला, मुझे इन धागों को जोड़ना है।' कोई दूसरी होती तो भर दुपहरी में पति की इस अाज्ञा को सुन उसकी बुद्धि के संबंध में कुछ विचार करती। संभवतः उसे पागल मान बैठती। परंतु वासुकी के मन में इस प्रकार की धुंधली कल्पना तक नहीं पाई। वह जल्दी ही दीपक जलाकर लाई। इन सब बातों को देख साधु समझ गया कि जब तक पति-पत्नी में पूर्ण एकता रहती है, लेश मात्र भी संदेह नहीं रहता तभी तक विवाहित जीवन सुख का सागर है। इन सब घटनाओं को देख वह साधु बोला--"मैं आपके सुखी विवाहित जीवन का मर्म समझ गया हूँ।' इसना कह वह वहाँ से चला गया। परंतु गार्हस्थ्य-जीवन के इस सुख का अनुभव वह अपने जीवन के अंतिम काल तक नहीं कर सका। बीच ही में उसकी पत्नी का देहांत हो गया। उसकी मृत्यु से उसे अत्यंत दुःख हुअा। वह अपनी पत्नी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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