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________________ प्राचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ सूरज सशि सायर सुधिर धुन जोलौं निरधार । तो लौं श्री लखपत्ति कौं, पारसात सौं प्यार ।। ५३ ॥ इति श्री पारसात नाममाला भट्टारक श्री भट्टारक कुंवरकुशलसूरिकृत संपूर्णः मूल पारसी ग्रन्थ का एक पद्य का अनुवाद यहाँ दिया जाता है: खुदा के नाम, दावर खालक है खुदा-रब्बं कीजु रुसूल । अलखें जोति भखें कहै, मर्घन जगत को मूल ॥१॥ ३. लखपति पिंगल : यह छंद ग्रन्थ लखपति के नाम से रचा गया है। इस की संवत १८०७ के पौष बदी ८ भोम वार को स्वयं कुंवरकुशल के लिखित ७१ पत्रों के प्रति पाटन भण्डार से प्राप्त हुई है। आदि अन्त इस प्रकार है: आदि : साचै सूरयदेव की, करहु सेव कुंवरेस कविताई है कामकी, अधिक बुद्धि उपदेस |॥ १॥ अन्त : गोरीपति गुन गुरु, कछ देस सुखकर सूर चंद जो लौं थिर, लखधीर देत बर ।।६०॥ गुरु जब किरपा की गुरव, सुरज भये सहाय तब लखपति पिंगल अचल, भयो सफल मन भाय ।।६१॥ ४. गौड़पिंगल : लखपति के पुत्र रावल गौड़ के लिए छंदशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बनाया गया है। संवत १८२१ अक्षय तृतीया में इसकी रचना हुई । और उसी समय की वैसाख शुक्ल १३ ग्रन्थकार की स्वयं लिखी कृति पाटन भण्डार से प्राप्त हुई । लखपति पिंगल से यह ग्रंथ बड़ा है । इसमें ३ उल्लास हैं । श्रादि अंत इस प्रकार है: श्रादि : सुखकर सूरज हो सदा, देव सकल के देव । कुंवरकुशल यातें करे, सुभ निति तुमपय सेव ॥१॥ अन्त : अट्ठारह सत ऊपरै, इकइस संवति श्राहि । कुंवरकुशल सूरज कृपा, सुभ जस कियो सराहि ।।६४४ ।। सुदि वैसाखी तीज सुभ, मंगल मंगलवार । कछपति जस पिंगल कुंवर, सुखकर किय संसार || ६४५ ॥ ५. लखपति जस सिन्धु : यह अलंकार शास्त्र तेरह तरंगों में रचा गया है। महाराजा लखपति के श्रादेश से इसकी रचना हुई। प्रादि-अन्त इस प्रकार है: श्रादि: सकल देव सिर सेहरा, परम करत परकास। सिविता कविता दे सफल, इच्छित पूरै श्रास ।।१।। अन्त: कवि प्रथम जे जे कहे, अलंकार उपजाय। कुंवरकुशल ते ते लहे, उदाहरण सुखदाय ।।८२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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