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________________ प्राचीन भारत में देश की अंकता के आर्थिक, सांस्कृतिक, भाषा और विद्या संबन्धी पहलुओं से हरी-भरी बनी रहती थी। जिस प्रकार यूनान देश में वहां की संस्कृति की धात्रियां "सिटी-स्टेट्स" या पौर-राज्य थे ठीक उसी प्रकार भारतवर्ष के जनपद भी सांस्कृतिक और राजनैतिक इकाइयों के रूप में स्थानीय विश्वजनता की माताएं थी। किन्तु जनपदों की इस विविध शृंखला को एकत्र मिलाकर किसी महान् राजनैतिक संगठन का आदर्श भी वैदिक काल से मिलने लगता है। इस सम्बन्ध में प्रत्येक राजा की ऐन्द्र महाभिषेक (राज्यासन पर आसीन होने के अभिषेक) के समय पढ़ी जाने वाली प्रतिज्ञा को हम नहीं भुला सकते। इसमें कहा है:___जो ब्राह्मण पुरोहित यह इच्छा करे कि अभिषिक्त होने वाला क्षत्रिय सब विजयों को जीते, सब लोकों को प्राप्त करे, सब राजाओं में श्रेष्ठता प्राप्त करे, एवं साम्राज्य, भौज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठय, राज्य, महाराज्य, आधिपत्य, इन विभिन्न प्रकारों से अभिषिक्त होकर परम स्थिति प्राप्त करे, चारों दिशाओं के अन्त तक पहुंच कर अायुपर्यन्त सार्वभौम बने, और समुद्रपर्यन्त पृथिवी का एकराट् बने, उस क्षत्रिय को इस ऐन्द्र महाभिषेक की शपथ दिलाकर राज्य में उसका अभिषेक करना चाहिए।' इस प्रतिज्ञा में हम उन अनेक शब्दों की गूंज सुनते हैं जिनसे भारत का राजनैतिक इतिहास अान्दोलित हुया है। भारतीय इतिहास में जितने राजाओं का अभिषेक वैदिक पद्धति से हुआ सबके लिये इसी प्रतिज्ञा का उच्चारण हुअा होगा। देश की भौगोलिक अंकता को इसमें स्पष्ट राजनैतिक एकता के साथ मिलाया गया है। समन्तपर्यायी सार्वभौम और समुद्रपर्यन्त पृथिवी का एकराट् ये दोनों आदर्श देशव्यापी राजनैतिक चेतना के सूचक हैं। इसी से प्रेरित होकर शकुन्तला ने कहा था: 'हे दष्यंत' मेरा यह पत्र शैलराज हिमवन्त का शिरोभूषण धारण करने वाली इस चतुरंत प्रथिवी का पालने करने वाला बनेगा।' हम पहले कह चुके हैं कि भरत का अजित चक्र लोक में गूंजता हुअा सब राजात्रों को अपने वश में लाकर समस्त पृथ्वी पर फैल गया। इसके कारण भरत सार्वभौम चक्रवर्ती कहलाए। भरत से आरम्भ होकर यह परम्परा और ये आदर्श और भी कितने ही राजारों में अवतीर्ण हुए। ऊपर लिखी हुई कई राज्यप्रणालियों में परस्पर भेद थे। “सार्वभौम" शब्द सर्वभूमि या महापृथिवी के राज्य की ओर संकेत करता है। सार्वभौम राजा को चक्रवर्ती भी कहा जाता था। जिस के रथचक्र के लिये अपने जनपद से बाहर कोई रुकावट न हो उसे चक्रवर्ती कहा गया जान पड़ता है। पीछे उस बढ़े हुए राजनैतिक सीमाविस्तार या भूभाग के लिये चक्र शब्द का प्रयोग होने लगा। सार्वभौम पद्धति में यह आवश्यक था कि राजा दूसरे राजाओं के साथ युद्ध करके या तो उन्हें अपना वशवर्ती बना ले और या बलपूर्वक उनका राज्य अपने राज्य में मिला ले। यही भरत ने किया था, और कालान्तर में समुद्रगुप्त ने भी इसी नीति का अवलम्बन किया। प्रारम्भिक अवस्था में प्रायः प्रत्येक देश में भूमि अनेक जनपदीय राजाओं में बंटी हुई होती है, उनमें से प्रत्येक की अपनी स्वतंत्र सत्ता रहती थी। उनके बीच में कोई एक शक्तिशाली राजा उठ खड़ा होता, और भरत के समान ही सबके ऊपर अपना चक्र स्थापित करके उस राजनैतिक १. स य इच्छेदेववित्क्षत्रियमयं सर्वा जितीजयेतायं सालोकान्विन्देताय सर्वेषां राश श्रेष्ठयमतिष्ठा परमता. गच्छेत साम्राज्यं भोज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठयं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी स्यात्सार्वभौमः सार्वायुष आ अन्तादापरार्धात्पृथिव्यै समुद्रपर्यन्ताया एकराडिति तमेतेनेन्द्रैण महाभिषेकेण क्षत्रियं शापयित्वा अभिषिचेत। (ऐतरेय ब्राह्मण, ८।१५) २. तस्य तत्प्रथितं चक्रं प्रावर्तत महात्मनः, भास्वरं दिव्य माजितं लोकसन्नादनं महत्। स विजित्य महीपालाश्वकारं वशवर्तिनं, स राजा चक्रवासीत् सार्वभौमः प्रतापवान् (आदि०६६।४५-४७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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