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________________ पालि-भाषा के बौद्ध ग्रन्थों में जैन धर्म अनाश्रव होता है। विपाक रहित होने से कर्मक्षय, कर्मक्षय से दुःखक्षय और दुःखक्षय से वेदनाक्षय और वेदनाक्षय से सभी दुःख जीणे हो जाते हैं।" __यहां भगवान् महावीर ने आध्यात्मिक शुद्धि के लिए तपस्या का प्रतिपादन किया। इस दृष्टिकोण से निर्ग्रन्थ साधु कठोर तपश्चरण करते हैं। पर बुद्ध ने इस तपस्या की आलोचना करते हुए कहा है कि तुम्हारी साधना या तपोमार्ग व्यर्थ है, यदि तुम यह नहीं जानते कि हम कैसे थे कैसे हैं, कौन कौन से पाप किये हैं; कितने पाप नष्ट हो गये, कितने और नष्ट होने हैं; कब इनसे छटकारा मिल जायगा आदि। निर्ग्रन्थ तपस्या की ऐसी ही आलोचनाएं पाली ग्रन्थों में कई स्थानों में देखने में आती हैं। परन्तु इन अालोचनाओं में, मालूम होता है, बुद्ध ने निर्ग्रन्थ तपस्या की अन्तरात्मा की आलोचना न कर केवल उसके उग्र बाह्य रूप की ही आलोचना की है। निर्ग्रन्थ परम्परा की मान्यता है कि कायक्लेश या तपस्या चित्त के मलों को हटाकर आध्यात्मिक शुद्धि के लिए है। यदि उससे यह काम नहीं होता तो वह व्यर्थ है। इस दृष्टि से बुद्ध की आलोचना और जैन मान्यता में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं रह जाता। - भग० महावीर ने क्रियावाद की स्थापना में यह घोषित किया कि इस संसार में प्राणियों का जीवन अंशतः भाग्य (पूर्वजन्मकृत कर्मों) पर और कुछ मानवीय प्रयत्नों (इहजन्मकृत) पर निर्भर है। इस तरह निययानिययं (नियतानियतं) सिद्धान्त की स्थापना कर तत्कालीन अन्य क्रियावादियों से अपना स्पष्ट मतभेद प्रकट किया। उन्होंने बतलाया कि पूर्वजन्मकृत कर्मों के अधीन हो हमने कैसे भवभ्रमण किया और कैसे अब कर रहे हैं। भग० बुद्ध भी क्रियावादी थे पर उनका सिद्धान्त था कि हम हेतु प्रभव हैं और हेतुओं (प्रतीत्य समुत्पाद) के कारण चक्कर काट रहे हैं। . इन दोनों क्रियावादियों के मतभेद को दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि महावीर अन्तरंग और बहिरंग दोनों शक्तियों को मानकर चलते हैं, बुद्ध केवल अन्तरंग शक्ति अर्थात् मन (मनोपुब्बंगमा धम्मा) पर चलते हैं। एक ने बहिरंग काय-कर्म (दण्ड) वचन-कर्म (दण्ड) और अन्तरंग मनःकर्म (दण्ड) को बन्धन रूप से प्रतिपादित किया है तो दूसरे ने केवल अन्तरंग मन को ही अनर्थकर बतलाया है। मझिमनिकाय के उपालिसुत्त में यही चर्चा उठाई गई है कि निगण्ठ नातपुत्त काय, वचन और मन रूप से तीन दण्ड मानते हैं जब कि बुद्ध ने काय, वचन और मन को तीन कर्म माना है; पर इन दोनों के मतों की उक्तसूत्र में आलोचना करते हुए यह दिखलाया गया है कि महावीर कायदण्ड को महापापवाला मानते हैं जब कि बुद्ध मनःकर्म को। इस प्रसंग में दण्ड और कर्म का एक ही अर्थ समझना चाहिये, परन्तु महावीर के मत में कायदण्ड को ही सबकुछ बतलाकर उसे गलत ढंग से उपस्थित किया गया है। उपालिसूत्र में यदि हम बुद्ध और उपालि के बीच हुए सम्वाद को सूक्ष्मरीति से पढ़ें, तो महावीर की मान्यता का यथार्थ रूप समझ सकते हैं: “बुद्ध : 'चतुर्याम संवर से संवृत निगण्ठ पाते जाते बहुत छोटे छोटे प्राणिसमुदाय को मारता है। हे गृहपति! निगएठनातपुत्त इनका क्या फल बतलाते हैं।" उपालि: “भन्ते, अनजान (असंचेतनिक) को निगण्ठनातपुत्त महादोष नहीं मानते, जानकर किये गये कर्म को ही पाप मानते हैं।" इस सेवाद से यह निष्कर्ष निकालना सरल है कि मनःपूर्वक (जानकर) किया गया कर्म ही पापकर है। महावीर का यह सिद्धान्त कि मनःकर्म और कायकर्म दोनों समान रूप से पापजनक हैं, मज्झिमनिकाय के महासच्चकसुत्त से भलीभान्ति समर्थित होता है। उक्तसूत्र में निगराठपुत्त सच्चक श्राजीवक और बुद्ध के मत की श्रालोचना करते हुए कहता है कि आजीवक तो कायिक भावना में तत्पर हो विचरता है, चित्त १. मज्झिमनिकाय, चूलदुक्खक्खन्ध एवं देवदहसुत्त । ' २. महावग्ग, सारिपुत्त-मोग्गलान प्रव्रज्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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