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________________ भारत की एक महान विभूति सुव्यवस्था एवं उत्तमोत्तम ग्रन्थ-प्रकाशन के लिए व्यवस्था की। लोक-हित के जिस कार्य में आपने हाथ डाला, उसे उत्तम रूप से पूर्ण किया, जिस संस्था पर आपकी कृपा-दृष्टि हई, उस संस्था में नव-जीवन संचार कर दिया। आपके सदुपदेशों के कारण सहस्रों मनुष्यों में काया-पलट हो गया. और उन्होंने दुर्लभ नर-तन प्राप्त करने का वास्तविक लाभ उठाया। यद्यपि आप एक संप्रदाय के प्राचार्य थे, परन्तु आपमें साम्प्रदायिक संकीर्णता का सर्वथा अभाव था। आप प्रत्येक धर्म एवं संप्रदाय के अनुयायी का यथोचित सत्कार करते थे और उसकी शंकाओं का समाधान अपनी विलक्षण तर्क शैली द्वारा किया करते थे। अापके उज्ज्वल चारित्र, उदार स्वभाव एवं अलौकिक प्रतिभा के कारण आपका समादर प्रत्येक क्षेत्र में होता था, और प्रत्येक संप्रदाय अथवा समुदाय के नेता श्राप से परामर्श करने एवं पथ-प्रदर्शन के लिए मिलते रहते थे। आपमें देश-भक्ति की भावना पूर्ण रूप से भरी हुई थी और अापका प्रत्येक कार्य देश-हित का विशाल दृष्टि-कोण लिए हुए होता था। श्राप सदैव शुद्ध खादी पहनते, और जनता को भी सदैव खादी पहनने का उपदेश करते थे। देश-हित के प्रत्येक कार्य में आप सदैव अग्रणी रहते थे, और आपके सदुपदेशों में देश-भक्ति की पावन धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रहती थी। यद्यपि आपकी नश्वर देह आज हमारे बीच में नहीं है, और आपके निधन के कारण आज हम सब अपने आपको अनाथ-सा अनुभव कर रहे हैं, तथापि आपकी आदर्श जीवनी, अापके सदुपदेश, आपके दिव्य भक्तिपूर्ण काब्य और आपके अगणित कार्य-कलाप एक महान् प्रकाशस्तंभ के समान हमारे तमसावृत मानस-पटल के अज्ञानान्धकार को विदीर्ण कर सुमार्ग-प्रदर्शन के लिए प्रस्तुत हैं, और सदैव प्रस्तुत रहेंगे। आपकी पुनीत स्मृति में आपका भक्त-समुदाय पार्थिव स्मारक बनवा रहा है और भविष्य में भी बनवाएगा, तथापि आपके सर्वोत्तम स्मारक तो आपके निःस्वार्थ कार्यकलाप ही हैं। आपका वास्तविक स्मारक तो तब बनेगा जब हम अापके छोड़े हुए अपूर्ण कार्य की पूर्ति में कटिबद्ध होकर उसकी पूर्णाहुति में योग-दान देंगे। शासन देव से प्रार्थना है कि वे हमें इन महान् युग-वीर प्राचार्य के प्रदर्शित मार्ग पर अविचलित रूप से चलने की सुबुद्धि एवं शक्ति प्रदान करें, जिससे कि हम स्वतंत्र भारत के सुयोग्य नागरिक कहलाने की योग्यता प्राप्त कर, स्व-एवं पर-हित-साधन में समर्थ हो सकें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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