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आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ सारे कुटुम्बी जनों को धर्मानुरागी बनने का सौभाग्य प्राप्त होना उनश्री के उपदेशामृत का ही फल है। अर्थात् अाज से ३५ वर्ष पूर्व मेरे पूज्य पितामह और चाचाजी आदि ने पूज्यवर श्राचार्य भगवंत के उपदेश से ही दो हजार यात्रियों को लेकर श्री केसरियाजी तीर्थ की संघयात्रा निकाली थी जिसमें स्वयं प्राचार्य भगवंत अपने शिष्य परिवार सहित दो महीने साथ में ही थे और उस यात्रा मार्ग में उनश्री के सत्संग का और अमृतवाणी सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था और जैन शासन की अपूर्व महिमा का बोध होने से तब ही से उनके दर्शनार्थ अाता जाता रहता था।
गत वर्ष जब आप बंबई चातुर्मास के लिए बिराजमान थे तब उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ चिन्ताजनक समाचार सुनने में आये। तब उनश्री की अन्तिम सेवा करने की तीव्रोत्कंटा जागी और where there is will there is way-जहां उत्कंठा होती है वहां मार्ग मिलता ही है-इस कहावत के अनुसार मैं बंबई पहुँचा। दस पंदरह रोज ठहरने पर ज्ञात हुआ कि पूज्यवर के स्वास्थ्य में सुधारा होता जा रहा है और पंजाब से पधारे हुए प्रसिद्ध वैद्यराजजी भी पुरस्कारपूर्वक विदा किये गये हैं, इसलिये मैंने भी वापिस मद्रास लौटने का निश्चय किया। लेकिन विधि के कार्यक्रम में उनश्री की श्मशानयात्रा में सम्मिलित होने का विधान था, उस भावी को कौन मिटा सकता था। अर्थात् एक पीछे एक सामाजिक व धार्मिक कार्य सामने
आते ही गये और पूज्यवर श्राचार्य भगवंत का मुझे ठहरने के लिये संकेत होता ही गया और मेरा निजी कार्यक्रम स्थगित होता गया और जाने जाने के विचार में ही और २५ रोज व्यतीत हो गए। अंतिम दिन उनकी निश्रा में ईश्वरनिवास में पौषध किया और प्रतिक्रमण करते हए संसार-दावानल की स्तुति का अादेश पूज्यवर ने स्वयं श्रीमुख से मुझे दिया। अर्थात् श्रावक के तौर पर उनके साथ अंतिम प्रतिक्रमण करने का और उनकी निश्रा में पौषध करने का मुझे ही सौभाग्य प्राप्त हुआ।
___ उन दिनों में मेरा सोना बैठना प्रायः ईश्वरनिवास में ही होने से समय पाकर मैं पूज्यवर के साथ सामाजिक, दार्शनिक एवं धार्मिक विविध विषयों पर वार्तालाप करता रहता था और अनेक प्रश्नोत्तर भी चलते रहते थे। एक रोज मैंने पूछा कि पूर्वकाल में जैन लोगों के प्रति श्राम प्रजा में बड़ा प्रेम और आदर था। इतिहास उसका साक्षी है, परन्तु आज हमारी प्रतिष्ठा इतनी नीचे गिर गई है कि प्रजा हमें तिरस्कार की दृष्टि से देखती है और हमारे समाज में भी संकीर्णता, स्वार्थपरायणता और विवेकशून्यता दिन प्रतिदिन बढती जा रही हैं। इसलिये कौनसे ऐसे उपाय हैं जिससे अपनी सामाजिक उन्नति साध सकें और श्राम प्रजा के हृदय पर प्रभाव डाल सकें। पूज्यवर ने इसके समाधान में सुन्दर शली से प्रतिपादन करते हुए ऐसे अमूल्य पांच विषय बताये जिन पर मनन करने से मुझे दृढ विश्वास हो गया कि वास्तव में ये हमारे उन्नति के उत्तमोत्तम उपाय हैं। वे पांच उपाय ये हैं-(१) सेवा, (२) स्वावलम्बन, (३) संगटन, (४) शिक्षा, (५) साहित्य,
मैं बंबई के अज़ाद मैदान की विराट शोकसभा में पूज्यवर के प्रति अपनी अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित करके पुनः मद्रास लौटा तब दक्षिण प्रान्त में जैन संस्कृति का संरक्षण और पोषण करनेवाली प्रसिद्ध संस्था " जैन मिशन सोसायटी" के कार्यवाहकों ने तथा मद्रास के स्थानिक संघ ने पूज्यवर प्राचार्य भगवंत की अंतिम सेवा में रह कर लाया हुआ संदेश सुनाने के लिये कहा । तब एक विशाल सभा में मैंने उपर्युक्त पाँचों विषयों पर सुन्दर ढंग से विवेचन करके सुनाया। सबको समाजोन्नति के ये पांच उपाय इतने पसंद अाये कि वे इन्हें "पंजाब केसरी का पंचामृत" नाम से सम्बोधित करने लगे। प्रवास में जहाँ जहाँ मेरा जाना हुआ वहाँ की जैन प्रजा ने भी यही पंचामृत पान करने की जिज्ञासा प्रकट की अर्थात् ये पांचों उपाय प्रजा को बहुत रुचिकर सिद्ध हुए हैं इसलिये इस समय इस स्मारक ग्रन्थ में उसी पंचामृत पर कुछ लिखने
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