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________________ युगवीर प्राचार्य श्रीविजयवल्लभ : जीवनज्योति उनके रचनात्मक कार्यों में सबसे अधिक उपयोगी, लाभदायक, दूरदर्शितापूर्ण और समाज में नवीन जागृति व स्फूर्ति उत्पन्न करनेवाला कार्य शिक्षा का प्रचार है। उनका यह दृढ़ विश्वास था और स्व० गुरुदेव श्री श्रआत्माराम जी ने दस वर्ष के सहवास में उन्हें यह गुरुमंत्र दिया था कि आधुनिक काल में शिक्षा की उपेक्षा कर समाज की गति नहीं और समाज के उत्कर्ष के अभाव में धर्म का प्रवाह भी रुक जाता है। अतः उन्होंने भिन्न भिन्न प्रान्तों में शिक्षणसंस्थात्रों की स्थापना करवा कर हमारी दान की दिशा को भी नया पथप्रदर्शन प्रदान किया। उनकी इस दूरदर्शिता का ही यह परिणाम है कि आज सैंकड़ों जैन नवयुवक उच्चशिक्षा प्राप्त कर चुके हैं और धर्म में भी रुचि रखते हैं। गुरुदेव के द्वारा स्थापित श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई, श्री श्रात्मानन्द जैन गुरुकुल गुजरांवाला, (इस समय अंबाला शहर), श्री अात्मानन्द जैन कालेज अंबाला शहर व मालेर कोटला, जैन कालेज फालना, जैन विद्यालय वरकाना व अनेक हाईस्कूल, गुरुकुल, विद्यालय, कन्याशालाएँ आदि जैन समाज के गौरव व जनसेवा के प्रतीक हैं। बम्बई के एक विद्वान् ने अपने महानिबंध (Thesis) Social survey of Jain Community में श्रांकड़ों के आधार पर सिद्ध किया है कि जैन समाज में शिक्षितों की प्रतिशत पारसियों व यहूदियों को छोड़ कर सबसे अधिक है। मानना होगा कि इस का मुख्य श्रेय गुरुदेव की साधना को है। गुरुदेव ने एक बार एक ज्ञान भंडार का उद्घाटन करते हुए ये उद्गार प्रगट किए थे " डब्बे में बंद ज्ञान द्रव्यश्रुत है, वह अात्मा में पाए, तभी भावश्रुत बनता है। ज्ञानमंदिर की स्थापना से सन्तुष्ट न होवो, उसका प्रचार हो, वैसा उद्यम करो।" हमारे अनेक मुनिगण अन्य विषयों में निश्चय व व्यवहार का वर्णन करते हैं, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में इसे विस्मृत कर देते हैं। श्री विजयवल्लभ बम्बई में जैन विश्वविद्यालय का स्वप्न लेकर गए थे। दुर्भाग्यवश समयाभाव से वह अभी पूर्ण नहीं हुअा। फिर भी शिक्षा के क्षेत्र में उन की सेवाएँ अनुपम रहेंगी। जैन साधुत्रों में इस विषय में इतनी तत्परता संभवतः और किसी ने नहीं दिखाई। - शिक्षा प्रचार के अतिरिक्त आचार्य श्री जी ने नवीन मन्दिर निर्माण, जीर्णोद्धार, साहित्यप्रकाशन आदि की ओर भी ध्यान दिया। अंतिम दिनों में वे देश विदेश में भिन्न भिन्न भाषाओं द्वारा धर्मप्रचार की योजना पर विचारविनिमय किया करते थे। दो वर्ष पूर्व लेखक से भी इस विषय में कुछ बातचीत हुई थी। उन की भावना इतनी सामयिक थी कि वे चाहते थे कि किसी प्रकार जैनसाधु भी विदेश में धर्म प्रचारार्थ जा सकें। एक और विशेष बात की और भी गुरुदेव ने हमारा ध्यान दिलाया। वह था समय के चक्र से शोषित और पीड़ित मध्यमवर्ग का उत्कर्ष, असहाय विधवात्रों की सहायता और बेकार भाइयों को रोज़गार देने के साधन। श्री श्रआत्मारामजी के भी इस विषय में क्रांतिकारी विचार थे। वे कहा करते थे कि गरीब सहधर्मी भाइयों की सहायता न कर केवल लड्डू खाना खिलाना सहधर्मी वात्सल्य नहीं, गधेखुरकनी है। ये दोनों दिव्य श्रात्माएँ मानती थीं कि सातक्षेत्रों में श्रावक श्राविका ही मुख्य आधारभूत स्तम्भ हैं। ये शायद इस युग में पहले जैन साधु हैं जिन्हों ने जैनों को Freedom from Want-दरिद्रता से मुक्ति दिलाने की धनवानों को प्रेरणा की हो। श्रावक श्राविका संघ की आवश्यकताओं की उपेक्षा मानो सभी क्षेत्रों की सार संभाल की उपेक्षा है। इसी लिए गुरुवल्लभ ने इस उद्देश्य के लिए विशेष निधि की अपील की और कानफ्रेंस के द्वारा इस कार्य को गति प्रदान की। श्री आत्माराम जी व श्री विजयवल्लभ जी की सेवात्रोंसे भारत ही क्या, विश्व उपकृत है। परन्तु पंजाब जैन श्रीसंघ तो हर दृष्टि से अपने अस्तित्व के लिए इन का ऋणी है। इन के रचनात्मक कार्यों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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