SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ વિલા-પ્રવચન [ १९१ संवेदन एवं सुझाव प्रकट किये हैं। आप अपने विचारोंमें एवं कार्योंमें इतने अचल धीर-वीर-गंभीर थे कि जैन प्रजाकी शिक्षा आदिके विषयमें, समर्थ साधुवर्गादिका भारी विरोध होने पर भी, आपने जीवन्त विचार एवं प्रयत्न किये हैं। और इनके मिष्ट फल जैन श्रीसंघको प्राप्त भी हुए हैं । ऐसे समर्थ प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व के स्वामी श्री आचार्य भगवानकी यह व्याख्यानमाला जैन प्रजाके लिये अवश्यमेव मार्गदर्शनरूप विशिष्ट पुस्तिका बन गई है। इस प्रथम विभागमें हरएक व्यक्तिके जीवनमें अत्यावश्यक दान-शील-तप-भावना-विषयक विविध दृष्टिकोणोंको सुलझाने वाले व्याख्यानोंका संग्रह है। इन व्याख्यानोंको एवं अन्यान्य प्रकाशित होनेवाले व्याख्यानोंको पढनेसे आपका व्यक्तित्व कितना महान् था और आपके अन्तस्तलमें जैनधर्म एवं जैन श्रीसंघकी प्रगतिके लिये कितना भारी आन्दोलन चल रहा था, इसका ख़याल आ सकता है । इतना ही नहीं, आपका धर्मदर्शन एवं समाजदर्शन कितना गहरा था, इसका भी पता चल जाता है; साथ-साथ स्वर्गस्थ गुरुदेव पूज्यपाद श्री १००८ श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी महाराजश्रीजीके श्रीचरणों में निवास करके, उनके धर्मविचारोंको झेलकर आपने उन विचारोंकी कितनी और कैसी साधना एवं आराधना की है, इसका भी पता लग सकता है। ___ अन्तमें, मैं आशा करता हूँ कि - पूज्य आचार्य भगवानकी इस व्याख्यानमालासे हरएक महानुभाव लाभ उठावे । [ “वल्लभ-प्रवचन" भाग-प्रथमकी प्रस्तावना, अम्बाला, ई.स. १९६७ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy