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________________ રામાયણકા અધ્યયન [ १०७ ग्रंथका प्राकृत नाम " पउमचरिउ" (सं० पद्मचरित ) रखा गया है । इसका संपादन स्वर्गस्थ जर्मन् विद्वान् डॉ० याकोबीने बड़ी योग्यता से किया है और प्रकाशन विक्रम संवत् १९७० में भावनगर (सौराष्ट्र ) की 'जैनधर्म प्रसारक सभा' ने किया है । इस ग्रंथकी रचना बड़ी विशद शैली से की गई है । अतः रामायणके अध्ययनकी दृष्टिके अतिरिक्त साहित्य, भाषा, सामाजिक इतिहास आदिके लिए भी यह महत्त्व रखता है । दिगंबर आचार्य श्री जिनसेन रचित पद्मपुराण इसी ग्रंथका प्रायः अक्षरशः संस्कृत रूपांतर है । २. त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित सप्तम पर्व - त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित ग्रंथके प्रणेता प्रसिद्ध आचार्य श्री हेमचंद्र हैं । यह समग्र ग्रंथ दश पर्व एवं परिशिष्ट पर्वको मिलाकर ग्यारह पर्वोंमें रचा हुआ है । समग्र ग्रंथ संस्कृत भाषामें ३२००० श्लोकप्रमाण हैं । विक्रमकी तेरहवीं शतीके प्रारंभ में इसकी रचना हुई है । इसके सातवें पर्व में रामायणका ३५०० श्लोकों में वर्णन है । आचार्य श्री हेमचंद्र की प्रतिभा विश्वतोमुखी थी । वे जो कुछ लिखते थे, उसे एकांगी न बनाकर व्यापक शैलीसे लिखनेका प्रयत्न करते थे और जैन-जैनेतर तत्तद्विषयक ग्रंथों का अध्ययन करके लिखते थे, अतः उनकी रचनायें सहज ही गांभीर्यका दर्शन हो जाता है। रामायणका अध्ययन करनेवालों को इसका अध्ययन बड़े महत्त्वका होगा । विक्रम संवत् १९६८ में भावनगरकी जैनधर्म प्रसारक सभाने इस महाकाव्य ग्रंथका समग्र रूपमें प्रकाशन किया है । I ३. वसुदेव हिंडी - महाकवि गुणाढयेकी पिशाचभाषामयी वड्डकहा- सं० बृहत्कथा-के अनुकरणरूप यह ग्रंथ दो खंडों में प्राप्त है । पहले खंडके प्रणेता श्री संघदासगणि वाचक हैं | और दूसरेके रचयिता श्री धर्मसेनगणि महत्तर हैं। पहले खंडकी भाषा जैन प्राकृत है और दूसरेकी भाषा मागधी - शौरसेनी है । पहले खंडके २९ लंभक हैं और दूसरेके ७१ लंभक हैं, इस प्रकार यह समग्र ग्रंथ शतलंभकप्रमाण है । पहले खंडकी ग्रंथसंख्या १०३८१ श्लोक है और दूसरे की १७००० श्लोकपरिमित है । पहले खंडकी रचना विक्रमकी छठी सदी है और दूसरे की अनुमानतः सातवीं सदी प्रतीत होती है । दोनों खंडों की रचना भिन्न-भिन्न समयकी है । यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य है. - पहले खंडकी रचना पूर्ण रूपमें ही है, अतः दूसरे खंड के अभाव में भी किसीको यह प्रतीत न होगा कि यह ग्रंथ अपूर्ण है । इसके बदले में यह अवश्य प्रतीत होगा कि दूसरे खंडका निर्माण एवं अनुसंधान उसके रचयिता आचार्यने अपनी कल्पनामात्र से ही किया है, न कि अपूर्ण ग्रंथकी पूर्त्तिके लिए । पहला खंड बीचमें से भी खंडित है और इसका अंत भाग भी नष्ट १ सयलकलागमनिलया (यो) सिक्खावियकइयणो सुमुहयंदा (दो) । कमलासणा (णो)गुणड्ढा (ड्ढो) सरस्साई जस्स वड्ड कहा Jain Education International - उद्योतन- कुवलयमालाकहा प्राकृत. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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