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________________ નન્હીસુત્રકે વૃત્તિકાર તથા પ્પનકાર [ca ――― उस्सप्पिणीए चउवीसजिणवरा कित्तिया सनामेहिं । सिरिचंद सूरिनामेहिं सुहयरा हुंतु सयकालं ॥ १४ ॥ ॥ इति अनागतचतुर्विंशतिजिनस्तोत्रम् ॥ यहां पर एक बात को स्पष्ट करना अति आवश्यक है कि - प्राकृत पृथ्वीचन्द्रचरितके प्रणेता चन्द्रकुलीन श्रीशान्तिसूरिजीने अपने इस चरितकी मंगलगाथामें सूचित किया है कि'धनेश्वराचार्यकी अर्थगम्भीर वाणीका आपके ऊपर बडा प्रभाव पडा है' और इसी चरितकी प्रशस्तिमें आपने लिखा है कि-- चन्द्रकुलीन श्री सर्वदेवसूरि के स्वहस्तसे दीक्षा पाने वाले श्री श्रीचन्द्राचार्यकी कृपासे आपको आचार्यपद प्राप्त हुआ है । वह मंगलगाथान्तर्गत गाथा और प्रशस्ति इस प्रकार हैं । मंगलगाथान्तर्गतगाथा - जन्नाणघणलवेणं ववहरमाणा वयं मइदरिहा | करिमो परोवयारं तेसि नमो गुरु घणेसाणं ॥ १० ॥ प्रशस्ति आसी कुंदिदुद्धे विलससिकुले चारुचारित्तपत्त सूरी सेयंवराणं वरतिलयसमो सव्वदेवाभिहाणो || नाणासूरि पसाहापयितुमहिमा कप्परुक्खो व्व गच्छो जाओ जत्तो पवित्तो गुणसुरसफलो सुपसिद्धो जयम्मि ||१|| तेसिं चाssसी सुयजलनिही खंतदंतो पसंतो, सीसो बोसो सियगुणगणो नेमिचंदो मुणिंदो । जो विक्खाओ पुइवलए सुग्गचारी बिहारी, मन्ने नो से मिहिर ससिणो तेय-कंतीहिं तुला ||२|| तेसिं च सीसो पयईजडप्पा, अदिट्ठपुव्विल्लविसिसत्थो । परोवयारेकरसावियज्झो, जाओ निसग्गेण कइत्तको ड्डी ॥३॥ जो सत्रदेवमुनिपुंगव दिक्विएहि, साहित्त-तक्क-समएसु सुसिक्खिएहिं । संपावि वरपयं सिरिचंद सूरिपुज्जेहिं पक्खमुवगम्म गुणेसु भूरि ||४|| संवेगंबुनिवाणं एवं सिरिसंतिसूरिणा तेणं । वज्जरियं वरचरियं मुणिचंदविणेयवयणाओ ॥५॥ ज किंचि अजुत्तं वुत्तमेत्थ मइजड - रहसवित्तीहि । तमणुग्गहबुद्धीए सोहेयव्वं छइल्लेहिं ॥ ६ ॥ इगतीसाहियसोलस सरहिं वासाण निव्वुए वारे । कत्तियचरिमतिहीए कित्तिरिकखे परिसमत्तं ||७|| ऊपर दी गई पृथ्वीचन्द्रचरितकी मंगलगाथान्तर्गत दसवीं गाथा और उसकी प्रशस्ति को देखने से यह प्रतीत होता है कि - प्राकृत पृथ्वीचन्द्रचरितके प्रणेता आचार्य श्री शान्तिसूरिके हृदयपर श्रीधनेश्वराचार्य के अर्थगंभीर विचारोंका भारी प्रभाव पडा है और श्री श्री चन्द्राचार्य, जो साहित्य, तर्क और सिद्धान्त के पारंगत थे, उनकी कृपासे आपको आचार्यपद प्राप्त हुआ था । इस प्रकार यहाँ पर इस आचार्ययुगल के नामों को सुनते ही यह भी संभावना हो आती है कि -- ये दो आचार्य, सार्धशतक - प्रकरणवृत्ति आदिके प्रणेता श्री धनेश्वराचार्य और न्यायप्रवेशपञ्जिका निशीथविंशोद्देशकव्याख्या आदिके प्रणेता पार्श्वदेवगण अपरनाम श्री श्रीचन्द्राचार्य, गुरु-शिष्य की जोडी हो ! । परन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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