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________________ નન્દીસૂત્રકે વૃત્તિકાર તથા પિનકાર [८७ सम्यक् तथाऽऽम्नायाभावादत्रोक्तं यदुत्सूत्रम् (:) । मतिमान्द्याद्वा किञ्चित् क्षन्तव्यं श्रुतधरैः कृपा कलितैः ॥१॥ श्रीशीलभद्रसरिणां शिष्यैः श्रीचन्द्रसूरिभिः । विंशकोद्देशकव्याख्या दृब्धा स्वपरहेतवे ॥२॥ वेदावरुद्रसङ्ख्ये ११७४ विक्रमसंवत्सरे तु मृगशीर्षे । माघसितद्वादश्यां समर्थितेयं रवौ वारे ॥३॥ निशीथचूर्णिविंशोदेशकव्याख्याप्रशस्तिके इस उल्लेखको और इनके गुरु श्री धनेश्वराचार्यकृत सार्धशतकप्रकरणवृत्तिकी प्रशस्तिके उल्लेखको देखते हुए, जिसकी रचना ११७१ में हुई है और जिसमें श्रीचन्द्राचार्य नाम न होकर इनकी पूर्वावस्थाका पार्श्वदेवगणि नाम ही उल्लिखित है, इतना ही नहीं, किन्तु प्रशस्ति के ७ वें पद्यमें जो विशेषण इनके लिए दिये हैं वे इनके लिये घटमान होनेसे, तथा खास कर पाटन-खेत्रवसी पाडाकी न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी प्राचीन ताडपत्रीय प्रति के अंतमें उनके किसी विद्वान शिष्य-प्रशिष्यादिने -" सामान्यावस्थाप्रसिद्धपण्डितपार्श्वदेवगण्यभिधान-विशेषावस्थावाप्तश्रोश्रीचन्द्रसरिनामभिः" ऐसा जो उल्लेख दाखिल किया है, इन सबका पूर्वापर अनुसंधान करनेसे इतना निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि --- इनका आचार्यपद वि. सं. ११७१ से ११७४ के बिचके किसी वर्षमें हुआ है । ग्रन्थरचना प्रन्थरचना करनेवाले श्रीश्रीचन्द्राचार्य मुख्यतया दो हुए हैं। एक मलधारगच्छीय आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिके शिष्य और दूसरे चन्द्रकुलीन श्री धनेश्वराचार्यके शिष्य, जिनका पूर्वावस्थामें पार्श्वदेवगणि नाम था । मलधारी श्री श्रीचन्द्रसूरिके रचे हुए आज पर्यंतमें चार ग्रन्थ देखनेमें आये हैं - १ संग्रहणी प्रकरण २ क्षेत्रसमासप्रकरण ३ लघुप्रवचनसारोद्धारप्रकरण और ४ प्राकृत मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र । प्रस्तुत नन्दीसूत्रवृत्तिदुर्गपदव्याख्याके प्रणेता चन्द्र कुलीन श्रीश्रीचन्द्राचार्यकी अनेक कृतियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनके नाम, उनके अन्तकी प्रशस्तियोंके साथ यहां दिये जाते हैं (१) न्यायप्रवेशपञ्जिका और (२) निशीथचूर्णिविंशोद्देशकव्याख्याके नाम और प्रशस्तियोका उल्लेख ऊपर हो चूका हैं। (३) श्राद्धप्रतिक्रमणमूत्रवृत्ति । रचना संवत् १२२२ । प्रशस्तिकुवलयसङ्घविकासप्रदस्तमःप्रहतिपटुरमलबोधः । प्रस्तुततीर्थाधिपतिः श्रीवीरजिनेन्दुरिह जयति ॥१॥ विजयन्ते इतमोहाः श्रीगौतममुख्यगणधरादित्याः । सन्मार्गदीपिकाः कृतसुमानसाः जन्तुजाड्यभिदः।।२।। नित्यं प्राप्तमहोदयत्रिभुवनक्षीराब्धिरत्नोत्तमं, स्वयोतिस्ततिपात्रकान्तकिरणैरन्तस्तमोभेदकम् । स्वच्छातुच्छसिताम्बरै कतिलकं बिभ्रत् सदा कौमुदं श्रीमत् चन्द्रकुलं समस्ति विमलं जाड्यक्षितिप्रत्य लम् ॥३॥ तस्मिन् सूरिपरम्पराक्रमसमायाता बृहत्प्राभवाः सम्यग्ज्ञानसुदर्शनातिविमलश्रीपद्यस्खण्डोपमाः । सचारित्रविभूषिताः शमधनाः सद्धर्मकल्पांहिपा विख्याता भुवि सूरयः समभवन् श्रीशीलभद्राभिधाः॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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