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________________ ७८] (२०) पाक्षिकसूत्रचूर्णि । अन्तः अनुष्टुपभेदेन छंदसां ग्रंथाग्रं चत्वारि शतानि ४०० ॥ पाक्षिकप्रतिक्रमणचूर्णी समाप्तेति || शुभं भवतु सकलसंघस्य मंगलं महाश्रीः || १. ऊपर जिन बीस चूर्णियोंके आदि-अन्तादि अंशोके उल्लेख दिये हैं, इनके अवलोकनसे प्रतीत होता है कि - प्रज्ञापनासूत्र के बारहवें शरीरपदकी चूर्णि श्री जिनमद्रगणि क्षमाश्रमणकृत है । आज इसकी कोई स्वतन्त्र हस्तप्रति ज्ञानभंडारोंमें उपलब्ध नहीं है, किन्तु श्री जिनदासगणि महत्तर और आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने क्रमशः अपनी अनुयोगद्वारसूत्र की चूर्णि और लघुवृत्तिमें इस चूर्णिको समग्र भावसे उद्धृत कर दी है, इससे इसका पता चलता है। श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने प्रज्ञापनासूत्र पर सम्पूर्ण चूर्णि की हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है । इसका कारण यह है कि - प्राचीन जैन ज्ञानभंडारों में प्रज्ञापनासूत्रचूर्णिकी कोई हाथपोथी नहीं हैं । दूसरा यह भी कारण है कि- आचार्य श्री मलयगिरि अपनी प्रज्ञापनावृत्तिमें सिर्फ शरीरसद की वृत्तिके सिवा और कहीं भी चूर्णिपाठका उल्लेख नहीं किया है । अतः ज्ञात होता है कि श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने सिर्फ प्रज्ञापनसूत्रके बारहवें शरीरपद ही चूर्ण की होगी । आचार्य मलयगिरिने अपनी वृत्तिमें इस चूर्णिका छः स्थानों पर उल्लेख किया है । જ્ઞાનાંજલિ २. नन्दी सूत्रचूर्ण, अनुयोगद्वारचूर्णि और निशीथसूत्र चूर्णिके प्रणेता श्री जिनदासगणि महत्तर हैं जो इन चूर्णियों के अन्तिम उल्लेख से निर्विवाद रूपसे ज्ञात होता है । निशीथचूर्णिके प्रारम्भमें आपने अपने विद्यागुरुका शुभ नाम श्री प्रद्युम्न क्षमाश्रमण बतलाया है। संभव है कि आपके दीक्षागुरु भी ये हो हों। इन चूर्णियों की रचना जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणके बादकी है। इसका कारण यह है किनन्दी चूर्णि में चूर्णिकारने केवलज्ञान- केवलदर्शन विषयक युगपदुपयोग- एकोपयोग-क्रमोपयोगकी चर्चा की है एवं स्थान स्थान पर जिनभद्रगणिके विशेषावश्यक भाष्यकी गाथाओं का उल्लेख भी किया है । अनुयोगद्वार चूर्णिमें तो आपने श्री जिनभद्रगणिकी शरीरपदचूर्णिको साधन्त उद्धृत कर दी है | अतः ये तीनों रचनायें श्री जिनभद्रगणिके बादकी ही निर्विवाद सिद्ध हैं । ३. दशवैकालिक चूर्णिके कर्त्ता श्री अगस्यसिंहगणी हैं। ये आचार्य कौटिकगणान्तर्गत श्री वज्रस्वामीकी शाखामें हुए श्री ऋषिगुप्त क्षमाश्रमणके शिष्य हैं। इन दोनों गुरु-शिष्यों के नाम शास्त्रान्तरवत्तिं होनेके कारण पट्टावलियों में पाये नहीं जाते हैं । कल्पसूत्रको पट्टावलीमें जो श्री ऋषिगुप्तका नाम है स्थविर आर्यहस्ति शिष्य होनेके कारण एवं खुद वज्रस्वामी से भी पूर्ववर्ती होनेसे श्री अगस्त्य - सिंहगणिके गुरु ऋषिगुप्तसे भिन्न हैं । कल्पसूत्रकी स्थविरावलीका उल्लेख इस प्रकार है ----- थेरस्स णं अज्जसुहत्थिस्स वासिद्धसगुत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया हो । जहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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