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________________ ७०) જ્ઞાનાંજલિ आयुध, नदो, पर्वत, खनिज, वर्ण-रंग, मंडल, नक्षत्र, काल-बेला, व्याकरण विभाग, इन सबके नामादिका विपुल संग्रह है। तिर्यग्विभागके चतुष्पद, परिसर्प, जलचर, सर्प, मत्स्य, क्षुद्र जन्तु आदिके नामादिका भी विस्तृत संग्रह है । वनस्पति विभागके वृक्ष, पुष्प, फल, गुल्म, लता आदिके नामोका संग्रह भी खूब है। देव और देवियोंके नाम भी काफी संख्यामें हैं। इस प्रकार मनुष्य, तिथंच, वनस्पति आदिके साथ सम्बन्ध रखनेवाले जिन पदार्थों का निर्देश इस ग्रंथमें मिलता है, यह भारतीय संस्कृति एवं सभ्यताकी दृष्टिसे अतिमहत्त्वका है । आश्चर्यकी बात तो यह है कि ग्रंथकार आचार्यने इस शास्त्रमें एतद्विषयक प्रणालिकानुसार वृक्ष, जाति और उनके अंग, सिक्के, भांडोपकरण, भाजन, भोजन, पेय द्रव्य, आभरण, वस्त्र, आच्छादन, शयन, आसन, आयुध, क्षुद्र जन्तु आदि जैसे जड एवं क्षुद्र चेतन पदार्थोंको भी इस ग्रन्थमें पुं-स्त्रो-नपुंसक विभागमें विभक्त किया है । इस ग्रंथमें सिर्फ इन चीजोंके नाम मात्र ही मिलते हैं, ऐसा नहीं किन्तु कई चीजोके वर्णन और उनके एकार्थक भी मिलते हैं। जिन चीजोंके नामोंका पता संस्कृत-प्राकृत कोश आदिसे न चले, ऐसे नामोका पता इस ग्रन्थके सन्दर्भीको देखनेसे चल जाता है । . इस ग्रंथमें शरीरके अङ्ग, एवं मनुष्य-तिर्यच-वनस्पति-देव-देवी वगैरहके साथ संबंध रखनेवाले जिन-जिन पदार्थोके नामोका संग्रह है वह तद्विषयक विद्वानोंके लिये अति महत्त्वपूर्ण संग्रह बन जाता है। इस संग्रहको भिन्न भिन्न दृष्टिसे गहराईपूर्वक देखा जायगा तो बड़े महत्वके कई नामोंका तथा विषयोंका पता चल जायगा । जैसे कि क्षत्रप राजाओंके सिक्कों का उल्लेख इस ग्रन्थमें खत्तपको नामसे पाया जाता है [ देखो अ० ९ श्लोक १८६ ] । प्राचीन खुदाईमेंसे कितने ही जैन यागपट मिले हैं, फिर भी आयाग शब्दका उल्लेख-प्रयोग जैन ग्रन्थों में कहीं देखनेमें नहीं आता है, किन्तु इस ग्रन्थमें इस शब्दका उल्लेख पाया जाता है। [देखो पृष्ठ १५२, १६८] | सहितमहका नाम, जो श्रावस्ती नगरीका प्राचीन नाम था उसका भी उल्लेख इस ग्रन्थमें अ० २६, १५३ में नजर आता है। इनके अतिरिक्त आजीवक, डुपहारक आदि अनेक शब्द एवं नामादिका संग्रह-उपयोग इस ग्रन्थमें हुआ है जो संशोधकोंके लिये महत्त्वका है। अंगविज्जा ग्रन्थका अध्ययन और अनुवाद कुछ विद्वानोंका कहना है कि इस ग्रन्थका अनुवाद किया जाय तो अच्छा हो । इस विषयमें मेरा मन्तव्य इस प्रकार है फलादेशविषयक यह ग्रन्थ एक पारिभाषिक ग्रन्थ है। जबतक इसकी परिभाषाका पता न लगाया जाय तबतक इस ग्रन्थके शाब्दिक मात्र अनुवादका कोई महत्व नहीं है। इसलिये इस ग्रन्थके अनुवादकको प्रथम तो इसकी परिभाषाका पता लगाना होगा और एतद्विषयक अन्यान्य ग्रन्थ देखने होंगे; जैसे कि इस ग्रन्थके अंतमें प्रथम परिशिष्ट रूपसे छपे हुए ग्रन्थ जैसे ग्रन्थ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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