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________________ १८] જ્ઞાનાંજલિ निरीक्षण द्वारा फलादेशका निरूपण करता है। अतः मनुष्यके हलन चलन और रहन-सहन आदिके विषयमें विपुल वर्णन इस ग्रन्थमें पाया जाता है । यह ग्रन्थ भारतीय वाङ्मयमें अपने प्रकारका एक अपूर्वसा महाकाय ग्रंथ है । जगतभरके वाङ्मय में इतना विशाल, इतना विशद महाकाय ग्रन्थ दूसरा एक भी अथापि पर्यंत विद्वानोंकी नजर में नहीं आया है | इस शास्त्र निर्माताने एक बात स्वयं ही कबूल कर ली है कि इस शास्त्रका वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानी से फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेश मेंसे एक असत्य ही होगा, अर्थात् इस शास्त्रकी यह एक त्रुटि है । यह शास्त्र यह भी निश्चित रूपसे निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशोंमेंसे कौनसा असत्य होगा । यह शास्त्र इतना ही कहता है कि “ सोलस वाकरणाणि वाकरेहिसि। ततो पुण एकं चुक्किहिसि, पण्णरह अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसंकासो भविहिसि " पृष्ठ २६५, अर्थात् " सोलह फलादेश तू करेगा उनमें से एकमें चूक जायगा, पनरहको संपूर्ण कह सकेगा - बतलाएगा, इससे तू केवल ज्ञानी न होने पर भी केवली समान होगा । "" इस शास्त्र ज्ञाताको फलादेश करनेके पहेले प्रश्न करनेवालेकी क्या प्रवृत्ति है ? या प्रश्न करनेवाला किस अवस्थामें रहकर प्रश्न करता है ? इसके तरफ उसको खास ध्यान या खयाल रखने का होता है । प्रश्न करनेवाला प्रश्न करनेके समय अपने कौन-कौनसे अङ्गोका स्पर्श करता है ? वह बैठके प्रश्न करता है या खड़ा रहकर प्रश्न करता है ?, रोता है या हँसता है ?, वह गिर जाता है, सो जाता है, विनीत है या अविनीत ?, उसका आना-जाना, आलिंगन-चुंबन करना, रोना, विलाप करना या आक्रन्दन करना, देखना, बात करना वगैरह सब क्रियाओं की पद्धतिको देखता है; प्रश्न करनेवालेके साथ कौन है ? क्या फलादि लेकर आया है ?, उसने कौनसे आभूषण पहने हैं वगैरहको भी देखता है और बादमें अङ्गविधाका ज्ञाता फलादेश करता है । इस शास्त्र के परिपूर्ण एवं अतिगंभीर अध्ययनके बिना फलादेश करना एकाएक किसीके लिये भी शक्य नहीं है । अतः कोई ऐसी सम्भावना न कर बैठे कि इस ग्रन्थके सम्पादकमें ऐसी योग्यता होगी । मैंने तो इस वैज्ञानिक शास्त्रको वैज्ञानिक पद्धतिसे अध्ययन करने वालोको काफी साहाय्य प्राप्त हो सके इस दृष्टिसे मेरेको मिले उतने इस शास्त्र के प्राचीन आदर्श और एतद्विषयक इधर-उधर की विपुल सामग्रीको एकत्र करके, हो सके इतनी केवल शाब्दिक ही नहीं किन्तु आर्थिक संगतिपूर्वक इस शास्त्रको शुद्ध बनानेके लिये सुचारु रूपसे प्रयत्नमात्र किया है । अन्यथा मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि काफी प्रयत्न करनेपर भी इस ग्रन्थकी अति प्राचीन भिन्न-भिन्न कुलकी शुद्ध प्रतियाँ काफी प्रमाणमें न मिलनेके कारण अब भो ग्रन्थ में काफी खंडितता और अशुद्धियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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