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________________ અગવિજજા પ્રકીર્ણક [७ जाता है, किन्तु कोई भी इसमें सफल नहीं हुआ है। सबके सब अधबिचमें ही नहीं किन्तु शुरूसे ही पानीमें बैठ गये हैं, फिर भी मैंने इस ग्रन्थमें सायंत विभागादि करनेका सफल प्रयत्न किया है। ग्रंथकी भाषा और जैन प्राकृतके विविध प्रयोग जैन आगमोंकी मौलिक भाषा कैसी होगी - यह जाननेका साधन आज हमारे सामने कोई भी नहीं है। इसी प्रकार मथुरा-वल्लभी आदिमें आगमोंको पुस्तकारूढ किये तब उसकी भाषाका स्वरूप कैसा रहा होगा इसको जानने का भी कोई साधन आज हमारे सामने नहीं है । इस दशामें सिर्फ आज उन ग्रन्थों की जो प्राचीन अर्वाचीन हस्तप्रतियाँ विद्यमान हैं - यह एक ही साधन भाषानिर्णयके लिये बाकी रह जाता है। इतना अनुमान तो सहज ही होता है कि जैन आगमोंकी जो मूल भाषा थी वह पुस्तकारूढ करनेके युगमें न रही होगी, और जो भाषा पुस्तकारूढ करनेके जमानेमें थी वह आज नहीं रही है --- न रह सकती है। प्राचीन-अर्वाचीन चूर्णिव्याख्याकारादिने अपने चूर्णि-व्याख्याग्रन्थोंमें जो सारेके सारे ग्रन्थको प्रतीकोंका संग्रह किया है, इससे पता चलता है कि सिर्फ आगमोंकी मौलिक भाषामें ही नहीं, किन्तु पुस्तकारूढ करनेके युगकी भाषामें भी आज काफी परिवर्तन हो गया है । प्राकृत वृत्तिकार अर्थात् चूर्णिकारोंने अपनी व्याख्यामोंमें जो आगमग्रन्थोंकी प्रतीकोंका उल्लेख किया है उससे काफी परिवर्तनवाली आगमग्रन्थोकी प्रतीकोका निर्देश संस्कृत व्याख्याकारोंने किया है। इससे प्रतीत होता है कि आगमग्रन्थोंकी भाषामें काफी परिवर्तन हो चूका है। ऐसी परिस्थितिमें आगमोंकी प्राचीन हस्तप्रतियाँ और उनके ऊपरकी प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णिया भाषानिर्णयके विधानमें मुख्य साधन हो सकती हैं । यद्यपि आज बहुतसे जैन आगमोंकी प्राचीनतम हस्तलिखित प्रतियाँ दुष्प्राप्य हैं तो भी कुछ अंगआगम और सूर्यप्रज्ञप्ति आदि उपांग वगैरह आगम ऐसे हैं जिनकी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दीमें लिखित प्राचीन हस्तप्रतियाँ प्राप्य हैं । कितनेक आगम ऐसे भी हैं जिनकी चौदहवीं और पन्दरवों शताब्दीमें लिखित प्रतियाँ ही प्राप्त हैं। इन प्रतियोंके अतिरिक्त आगम ग्रन्थोके ऊपरकी प्राकृत व्याख्यारूप चूर्णियाँ आगमोंकी भाषाका कुछ विश्वसनीय स्वरूप निश्चित करनेमें महत्त्वका साधन बन सकती हैं, जिन चूर्णियोंमें चूर्णिकारोंने जैसा ऊपर मैं कह आया हूं वैसे प्रायः समग्र ग्रन्थकी प्रतीकोंका संग्रह किया है । यह साधन अति महत्त्वका एवं अतिविश्वसनीय है। यद्यपि चूर्णिग्रन्थोंकी अति प्राचीन प्रतियां लभ्य नहीं हैं तथापि बारहवों तेरहवीं चौदहवी शताब्दीमें लिखित प्रतियाँ काफी प्रमाणमें प्राप्य हैं । यहाँ एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि भले ही चूर्णिग्रन्थोंकी अति प्राचीन प्रतियां प्राप्य न भी होती हो, तो भी इन चूर्णिग्रथोंका अध्ययन-वाचन बहुत कम होनेसे इसमें परिवर्तन विकृति आदि होनेका संभव अति अल्प रहा है। अतः ऐसे चूर्णिग्रन्थोको सामने रखनेसे आगमोकी भाषाका निर्णय करने, . प्रामाणिक साहाय्य मिल सकता है। यह बात तो जिन आगमोंके ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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