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________________ १०] જ્ઞાનાંજલિ हमारे सामने उस समयकी या उसके निकटके समयकी जैन आगमोंकी एक भी प्राचीन हस्तप्रति विद्यमान नहीं है. इस दशामें भी आज हमारे सामने आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, दशवैकालिक आदि आगमोंकी चूर्णियाँ और कुछ जैन आगमोंके भाष्य-महाभाष्य ऐसे रह गये हैं जिनके आधार पर वलभीपुस्तकालेखनके युगकी भाषा और उसके पहलेके युगकी भाषाके स्वरूपके निकट पहुँच सकते हैं. क्योंकि इन चूर्णियोंमें मूलसूत्रपाठको चूर्णिकारोंने व्याख्या करनेके लिये प्रायः अक्षरश: प्रतीकरूपसे उद्धृत किया है. जो भाषाके विचार और निर्णयके लिये बहुत उपयोगी है. कुछ भाष्य महाभाष्य और चूणियां ऐसी भी आज विद्यमान हैं जो अपने प्राचीन रूपको धारण किये हुए हैं. वे भी भाषाके विचार और निर्णयके लिये उपयुक्त हैं. इसके अतिरिक्त प्राचीन चूर्णि आदि व्याख्याग्रन्थों में उद्धरणरूपसे उद्धृत जैन आगम और सन्मति, विशेषणवती, संग्रहणी आदि प्रकरणोंके पाठ भी भाषाके विचारके लिये साधन हो सकते हैं. आचार्य श्री हेमचन्द्रने प्राचीन प्राकृतव्याकरण एवं प्राचीन प्राकृत वाङ्गमयका अवलोकन करके और देशी धातुप्रयोगोंका धात्वादेशोंमें संग्रह करके जो अतिविस्तृत सर्वोत्कृष्ट प्राकृत भाषाओंके व्याकरणकी रचना की है वह अपने युगके प्राकृत भाषाके व्याकरण और साहित्यिक भाषाप्रवाहको लक्ष्यमें रखकर ही की है. यद्यपि उसमें कहीं-कहीं जैन आगमादि साहित्यको लक्ष्यमें रखकर कुछ प्रयोगों आदिकी चर्चा की है तथापि वह बहुत हो अल्प प्रमाणमें है. इस बात का निर्देश मैंने साराभाई नवाब-अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित कल्पसूत्रकी प्रस्तावनामें [पृ० १४-१५) किया भी है. आचार्य श्रीहेमचन्द्रने जैन आगम आदिकी भाषा और प्रयोगों के विषयमें विशेष कुछ नहीं किया है तो भी उन्होंने अपने व्याकरणमें जैन आगमोंके भाष्य आदिमें आनेवाले कुछ व्यापक प्रयोगोंका और युष्मद्-अस्मद् आदि शब्दों एवं धातुओंके रूपोंका संग्रह जरूर कर लिया है. डॉ० पिशलने कई रूप नहीं मिलनेका अपने व्याकरणमें निर्देश किया है उनमें से बहुतसे रूप और प्रयोग जैन आगमोंकी भाष्य-चूणियोंमें नजर आते हैं. इस दृष्टिसे प्राकृत भाषाओके विद्वानोंको ये ग्रन्थ देखना अत्यावश्यक है. इन ग्रन्थोंमें कई प्रकारके स्वर-व्यञ्जनके विकार वाले प्रयोग, नये-नये शब्द एवं धातु, नये-नये शब्द-धातुओंके रूप, आजके व्याकरणोंसे सिद्ध न होनेवाले आर्ष प्रयोग और नये-नये देशीशब्द पाये जाते हैं जिनका उल्लेख पिशलके व्याकरणमें नहीं हुआ है. व्याकरण, देशीनाममाला आदि शास्त्र रचने वालों की अमुक निश्चित मर्यादा होती है, इस परसे उनके जमानेमें अमुक शब्द, धातुप्रयोग आदि नहीं थे या उनके खयालमें अमुक नहीं आया था, यह कहना या मान लेना संगत नहीं. डॉ. पिशलने 'खंभ' शब्दका निष्पादन वेदमें आनेवाले 'स्कंभ' शब्दसे किया है. इस विषयमें पिशलके व्याकरणके हिंदी अनुवादके आमुखमें श्रीयुक्त जोषीजीने 'प्राकृत वैयाकरणोंको इस बातका पता नहीं लगा' इत्यादि लिखा है, यह उनका पिशलके व्याकरणका हिंदी अनुवाद करनेके आनन्दका भावावेश मात्र है. हमेशा युग-युगमें साहित्यनिर्माणका अलग-अलग प्रकारका तरीका होता है. उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012058
Book TitleGyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnikvijay Gani
PublisherSagar Gaccha Jain Upashray Vadodara
Publication Year1969
Total Pages610
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size15 MB
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