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જ્ઞાનાંજલિ संक्षेपमें कहना यही है कि-प्राकृतके इस वाङ्मयमें विपुल ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सामग्री मिल सकती है. यदि इसका पृथक्करण किया जाय तो बहुत महत्त्वको सामग्रो एकत्र हो सकती है. प्राकृतादि भाषाएं
जहाँ आज तक पाश्चात्य और एतद्देशीय विद्वानोंने प्राकृत भाषाके विषयमें पर्याप्त विचार किया हो, विशेषतः प्राकृतादि भाषाके प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० पिशव महाशयने वर्षों तक इन भाषाओंका अध्ययन करके और चारों दिशाओंके तत्तद्विषयक सैकड़ों ग्रन्थोंका अवलोकन, अध्ययन, परिशीलन, चिन्तन आदि करके प्राकृत आदि भाषाओंका महाकाय व्याकरण तैयार किया हो वहाँ इस विषयमें कुछ भी कहना एक दुस्साहस हो है. मैं कोई प्राकृतादि भाषाओका पारप्राप्त विद्वान् नहीं हूँ, फिर भी प्राकृत आदि भाषा एवं साहित्यके अभ्यासी विद्यार्थीको हैसियतसे मुझे जो तथ्य प्रतीत हुए हैं उतको मैं आपके सामने रखता हूँ.
प्राकृत आदि भाषाओंके विद्वानोंने १ प्राचीन व्याकरण २ प्राचीन ग्रन्थोंमें आनेवाले प्राकृत भाषाके संक्षिप्त लक्षण और ३ प्राचीन ग्रन्थों में आनेवाले प्राकृत भाषाओंके प्रयोगोंको ध्मानमें रखकर प्राकृतादि भाषाओंके विषयमें जो विचार और निर्णय किया है वह पर्याप्त नहीं है. इसके कारण ये हैं --
१. व्याकरणकारोंका उद्देश्य भाषाको नियमबद्ध करनेका होता है, अतः वे अपने युगके प्रचलित सर्वमान्य तत्तद् भाषाप्रयोगों एवं तत्संवादो प्राचीन मान्य ग्रंथोके प्रयोगोंकी अपनी दृष्टिसे तुलना करके व्याकरणका निर्माण करते हैं. खास कर उनकी दृष्टि अपने युगको ओर ही रहती है. आजके व्याकरणोंको देखकर हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं. अतः इन व्याकरणोंसे प्राचीन युगकी भाषाका पूर्ण पता लगाना असंभव है.
२. प्राचीन व्याख्याग्रन्थ आदिमें अर्धमागधी आदिके जो एक-दो पंक्तियोंमें लक्षण पाये जाते हैं उनसे भी प्राकृत भाषाओंके वास्तविक स्वरूपका पता लगाना पर्याप्त नहीं है. डा० पिशलने अर्धमागधी
और मागधीके विषयमें जैन व्याख्यानकारोंके अनेक उल्लेखोंको दे कर प्रमाणपुरस्सर विस्तृत चर्चा की है. उसमें मैं इतनी पूर्ति करता हूँ कि--स्वर-व्यञ्जनोंके परिवर्तन और विभक्तिप्रयोग आदिके अतिरिक्त तत्कालीन भिन्न-भिन्न प्रान्तीय (जहाँ भगवान् महावीर और उनके निर्ग्रन्थोंने विहार, धर्मोपदेश आदि किया था) शब्दोंका स्वीकार या मिश्रण भी अर्धमागधीका लक्षण होनेकी सम्भावना है. जैन निर्ग्रन्थों को विहार-पादभ्रमण, भिक्षा, धर्मोपदेश, तत्तत्प्रान्तीय शिष्य-प्रशिष्योंके अध्ययन-अध्यापन आदिके निमित्त तत्तद्देशीय जनताके संपर्कमें रहना पड़ता है. अतः इनकी भाषामें सहज ही भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषाओंके स्वर-व्यञ्जनपरिवर्तन, विभक्ति-कारक आदिके प्रयोगोंके साथ प्रान्तीय शब्दप्रयोग भी आ जाते हैं. भाषाका इस प्रकारका प्रभाव प्राचीन युगकी तरह आजके जैन निम्रन्थोंकी भाषामें भी
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